Wednesday, 2 July 2014

जिस अनाम की राह देख रही हो तुम बचपन से !


संक्रमण की पीढ़ी की संतान हैं हम-तुम !
दो युगों के बीच की कड़ी ही नहीं , उनके बीच की खाई भी हैं हम !
हमें विरासत में प्रेम नहीं मिला …
और नयी पीढ़ी के लिये हमारे प्रेम की विरासत का कोई मोल नहीं।
ज़िन्दगी अपनी - अपनी
इसे जिसने जैसा समझा .... वैसे ही जीया।

और तुम।
पगली कहीं की !
किसी किनारे पर बैठ कर हर शाम करती रहती हो बस इंतज़ार …
उसका , जिसे तुम ना तो जानती हो।
ना ही जिसके आने की कोई आस है तुम्हें।

वो पत्र, जो तुमने कल भी लिखा था उस अनाम के नाम …
और भेज दिया था बहती नदी के हाथ।
आज सुबह एक कंटीली झाड़ी से लिपटा हुआ मिला !
बहुत कोशिश की लेकिन उसे साबुत नहीं निकाल सका !
गले हुये कागज़ को काँटों ने छलनी कर डाला जगह - जगह से !
लेकिन तब भी मैंने उस पत्र को सुखा लिया है।
… सूरज से किरणें उधार लेकर।

हाँ ,
कुछ विचित्र सी आकृतियाँ उभर आईं हैं अब उस पत्र पर।
जिन्हें मैं बिलकुल नहीं जानता।
कहो तो तुम्हारे पास ले आऊँ … ?
शायद उन आकृतियों में कोई चेहरा नज़र आ जाये …
जो तुम्हें उसकी पहचान बता दे
जिस अनाम की राह देख रही हो तुम बचपन से !

तुम्हारा
देव


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