Wednesday, 2 July 2014

मैं अब उससे मिलना नहीं चाहता


तुम्हें खत लिख रहा था , इंटरनेट भी ऑन था ... कि अचानक बिजली गुल हो गयी।
पता नहीं क्यों पर होंठ अपने आप ही कुछ असभ्य से शब्द बुदबुदा उठे ।
फिर अपनी इस करतूत पर एक ग्लानि का भाव गहरा गया ।
और मैं इससे बचने के लिए अंधेरे में मोबाइल टटोलता , कमरे को पार करता हुआ घर से बाहर आ गया ।
मेरे घर के पास ही एक कम्यूनिटी हॉल है , जहां शादियाँ हुआ करती हैं ।
बाहर गया तो नथुनों में एक बहुत पुरानी याद घुल गयी ..... मीठी महक बन कर !
मीठी नुकती की महक ....
हाँ,
जिसे मैं नुकती कहता हूँ , तुम उसे बूँदी कहती हो ।
इस मीठी भीनी महक ने उसकी याद दिला दी ।
एक लड़की थी ...
जो अक्सर मेरे लिए गरम – मीठी नुकती दोने में ले कर आती थी
हरे पत्तों से बने हुये हरे – हरे दोने ...
मनुहार करके मुझे खिलाती थी ।
और मैं जब तक पूरा न खा लूँ ,
उकड़ूँ बैठ कर अपनी हथेलियों पे ठोड़ी टिका कर मुझे निहारा करती थी ।
फिर एक दिन वो जाने कहाँ चली गई !
वो उम्र भी अजीब थी ....कंचे खेलने और कच्ची केरी के साथ नमक चाटने की उम्र !!!
कुछ समझ नहीं पाया था तब ।
लेकिन जब थोड़ा बड़ा हुआ और वो जगह छोड़ दी, तो उस लड़की की बहुत याद आई ।

और याद भी ऐसी ,
कि ज्यों ज्यों उसे रोका वो बढ़ती ही जाये
जितना उसे दबाओ वो फैलती ही जाये !
इधर कई सालों बाद वो सपने में मिलने आई थी मुझसे ।
पर्याप्त बड़ी हो गयी थी , चेहरा भी बदल चुका था ।
पर जैसे सपना एक क्षण में युगों की दूरी तय कर लेता है ना वैसे ही कुछ !!!
मुझे पता था ...
कि ये वही लड़की है .... बस अब बड़ी हो गयी है। सपने में वो कुछ दुखी – दुखी सी लगी ।
सपना खत्म हुआ तो बैचेनी और बढ़ गयी ।
मैं फिर से उस कस्बे में गया, जहां मेरा बचपन बीता था ।
पुराने संगी साथी तलाशे , लोगों से उसके बारे में पूछा ।
किसी ने कहा
“ अच्छा वो …
वो तो अब मुंबई में है ।
पति वैज्ञानिक है उसका !
शायद भाभा एटॉमिक रिसर्च सेंटर में !! “
सुन कर अच्छा भी लगा और नहीं भी ....
पता नहीं क्यों !
शायद मैं उसे दिल ही दिल चाहने लगा हूँ ।
या शायद ये एक भरम है मेरा ...
मुझे नहीं मालूम कि ये क्या है ।
पर हाँ ,
मैं अब मुंबई जाना चाहता हूँ ,
रास्तों पर भटकना चाहता हूँ । जिस्मों से अटे पड़े लोकल रेलवे-स्टेशन की ख़ाक छानना चाहता हूँ । सागर की भीगी रेत पर अनावृत पंजों से चलना चाहता हूँ ।
कि बस एक बार ....
वो कहीं मेरे करीब से गुज़र जाये
और एक बार मैं यूँ ही कसमसाकर किसी अजनबी स्त्री को देख लूँ ,
बचपन की उस प्रीत का भाव दिल में सँजो कर ।
बस ... और कुछ नहीं !
नहीं मैं उससे मिलना नहीं चाहता
बस उसे जीना चाहता हूँ !!

तुम्हारा
देव
 


No comments:

Post a Comment