प्रिय देव ,
जानते हो मुझे तुम्हारी कौन सी बात सम्मोहित करती
है ?
तुम्हारी दीवानगी ....
कि ठोस बर्फ पर चलता हुआ एक अनाड़ी बच्चा गिर कर
उठता है , उठते ही गिरता है
फिर – फिर उठता गिरता है ...
लेकिन थकता नहीं , हारता
नहीं !
वरन नर्म मुलायम बर्फ को सँजो कर , कौतूहल से देखता है उसके कणों को !!!
किरणों के सामने कर उसे झिलमिलाता है ,
मुँह में रख कर उसका स्वाद महसूसता है,
... पिंघलती हुयी बर्फ में ज़िंदगी तलाशता है !
सुनो देव ,
यूँ ही बच्चे बने रहना !
कभी थकना मत ... हार भी मत मानना ।
चाहे जितनी मोटी बर्फ की तहें जमी हों तुम्हारे
रास्ते में !!!
सोच रहे होंगे कि इन उमस भरे दिनों में बर्फ कि याद
क्यों आ गयी...
अभी – अभी लौटी हूँ ना बर्फीले प्रदेश से ।
वो यादें और एहसास अभी वैसे ही जीवंत हैं , जैसे कि वर्तमान !!!
और हाँ ...
प्रेम कि कली को फूल बनने से कभी मत रोकना ,
कभी मत टोकना ....
कच्ची कली की सार्थकता तभी तक है, जब तक कि वो शाख पर है ।
यदि उसकी हरियाली छिन गयी तो फिर वो किताबों में रह
जाएगी ' हर्बेरिअम ' बन कर
!!!
प्रेम का भाव शाश्वत है देव ...
पूरी तरह खिल उठना ही जीवन को मायने देता है ।
और तब भी हमें प्रीत के उस पुष्प को तोड़ने का हक़
नहीं !
उसका सौन्दर्य तो झर जाने में है ।
कभी ऐसा गुलाब देखा है ?
जो पूरी तरह खिल कर आधा झर गया हो और जिसकी आधी
पंखुरियाँ बच रही हों ....
अगले दिन झरने के इंतज़ार में !
वो गुलाब ही तो है प्यार की पराकाष्ठा !!!
हम भी पहुँच सकते हैं उस पराकाष्ठा तक...
बस वो विश्वास बना रहे ,
अपने पिय की आस का ...
अपनी प्रीत की प्यास का !!!
....
तुम्हारी
मैं !
सचमुच प्यार की पराकाष्ठा हैं आपके ये प्रेम पत्र !
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