Wednesday, 2 July 2014

मैं इन दिनों अपने साथ हूँ


प्रिय देव

सच कहते हो …
भाव से बढ़ कर कुछ नहीं !!!
पहले मैं भाव को तृष्णा समझती थी।
एक प्यास जो वक़्त के साथ बढ़ती या घटती है।
… लेकिन फिर पता चला कि भाव प्यास नहीं, वो तो स्वयं में एक कुआँ है।
प्यासे की प्यास बुझाने वाला अजस्र स्रोत !
जिसे खोदा नहीं जा सकता, बनाया नहीं जा सकता।
जो स्वयं ही प्रस्फुटित होता है कहीं बहुत भीतर से ....
अविरल प्रवाह बन कर।

बहुत दूर हूँ इन दिनों।
जानते हो न, सर्द देश की पैदाइश है मेरी।
गर्मी और उसके बाद के उमस भरे दिनों को मेरा शरीर सह नहीं पाता है अब।
जैसे - जैसे समझ और अनुभव आते जा रहे हैं ,
मेरा शरीर और अधिक संवेदनशील होता जा रहा है।

तुम पूछ रहे थे ना कि वहाँ की याद नहीं आती ?
याद आती है ....
पर मैं यहाँ खुश हूँ !

कभी - कभी इतना अधिक एकांत चाहिए होता है,
कि हम यदि सौ हो जाएँ तो भी उस एकांत में समा सकें … बिना किसी घुटन के !!!
अपने ' स्व ' को स्वयं में समाहित भी कर सकें
और स्वयं से विगलित भी हो सकें।
ठीक - ठीक शब्द नहीं मिल रहे
हाँ ,
अंग्रेज़ी में इसके लिए एक अच्छा शब्द है .... ' Space ' !

मैं इन दिनों अपने साथ हूँ , अपनी स्पेस में।
यहाँ के लोग अच्छे हैं ,
किसी की निजता में दखल नहीं देते।
घूर - घूर कर भी नहीं देखते।
चाहे मैं कूदूँ , नाचूँ या गाऊँ !!!
हा हा …
सोचोगे कि मैंने यहाँ भी वही सब हरकतें शुरू कर दीं।

पर मैं क्या करूँ देव …
तुम तो जानते हो,
मैं ऐसी ही हूँ !

अभी एक दिन सड़क से हट कर पेड़ों के गलियारे में टहल रही थी यूँ ही।
तभी किनारे की बेंच पर एक जोड़ा बैठा दिखा , जो परस्पर प्रीत में आकंठ आबद्ध था।
मैंने उन पर एक उड़ती सी निगाह डाली और आगे बढ़ गयी।
… लेकिन मन की निगाहों से उन्हें पीठ पीछे से भी टटोलती रही।
जब वापस लौट कर आई , तब तक दोनों जा चुके थे।

अचानक भावों का एक तेज़ रेला आया और मैं उसमें बह गयी।
यंत्रवत् सी बैठी और उस बेंच के निचले हिस्से पर तुम्हारा नाम लिख दिया।
ठीक वैसा ही , जैसा कि तुम अपने ख़त के अंत में लिखा करते हो।

देर तक वहाँ बैठी उन अक्षरों को निहारती रही।
फिर तन्द्रा टूटी और ये एहसास हुआ कि ये तो सार्वजनिक-स्थल है।
सहलाते हुए अपने ही लिखे हुए शब्दों को मिटा दिया।
लेकिन मिटाने से पहले एक तस्वीर ले ली।
उसे भेज रही हूँ।

तुम्हारी

मैं !

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