विश्वास नहीं होता ...
पूरा आषाढ़ ऐसे ही गुज़र गया ।
निर्जला एकादशी सा ....!
आषाढ़ ना हो मानो कोई सूखा कुआँ हो , जिसमें पत्थर डालो तो छपाक की जगह खट या धप्प की आवाज़ आये।
पर सावन सुहाना साथी बनकर आया ।
मन की सूखी मिट्टी में ओंधे मुंह पड़े ख़्वाबों के ज़र्द पड़ चुके बीज, सावन के सेरों में भीग कर करवट लेने लगे ।
मैं चाह कर भी चारदीवारों में न बंध सका,
बाहर चला आया... खुली आँखों में खुशियों की नमी सँजोने ।
देखा तो घर के सामने ये गाय खड़ी थी ।
अचानक ख़यालों का रेला मुझे बहा कर जाने कहाँ ले चला ।
रेला क्या वो तो दरिया था कोई !
जाने कितने भंवर पड़े थे उसमें ।
एक भंवर से निकालूँ तो दूसरा जकड़ ले ।
सच तो ये है कि वो भंवर, उनकी गति, उनका घेरा मुझे उस संसार में ले जा रहा था जिसे ‘ नोस्टेल्जिया ‘ कहते हैं।
इस गाय ने मुझे उठा कर मेरे अतीत में पटक दिया ।
तुम तो मुंबई बहुत बाद में आयीं, लेकिन मैंने कई सावन वहाँ गुज़ारे !!!
... शायद तुम्हारे इंतज़ार में ।
लेकिन जब तुम मुंबई आयीं , तो मैं वहाँ से चला आया ।
अजीब है सखी !
.... दर्द की कसक में भी इतनी मिठास।
अरे हाँ ,
देखो न इस गाय को ...क्या ये सिर्फ बारिश से बचने के लिए खड़ी है ?
या इस भीगे हुये मौसम में ये घड़ी भर ठहर कर किसी अपने को याद कर रही है !
.... शायद उसका बछड़ा !
या कोई साथी बिछड़ा हुआ !!
क्या अतीत की अनुभूतियों के बगैर वर्तमान परिपूर्ण है... ?
और जो ऐसा है ,
तो लोग याददाश्त खो जाने से डरते क्यों हैं ?
या फिर याददाश्त चली जाने के बाद ‘ स्याह–स्लेट ‘ जैसे क्यों हो जाते हैं ?
फिर कहोगी कि मैं सोचता बहुत हूँ ...
हाँ सोचता हूँ ,
कोई अपराध तो नहीं करता !
सोचना , गुज़रे पलों को जीना , फिर से एक नयी आस से सराबोर हो जाना...
ये कोई जुर्म तो नहीं !!
बोलो सखी ...
प्रतीक्षा में
तुम्हारा
देव
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