Wednesday, 2 July 2014

देखना, एक दिन फूल ज़रूर खिलेंगे !!

प्रिय देव,

कितना अजीब है
सबको लगता है कि ये ख़त तुम मुझे लिखते हो 
मगर सच ये है कि ये सारे ख़त तुम अपनेआपको लिखते हो ।
मैं तो बस एक सम्बोधन की तरह मौजूद हूँ तुम्हारे हर ख़त में !
गिले-शिक़वे ज़िंदगी से कुछ वैसे ही जुड़े हैं, जैसे कि हर साँस।
न चाहकर भी जीवन से कोई न कोई शिकायत बाक़ी रह जाती है ।
कुछ न कुछ अधूरा छूट ही जाता है।
वो अधूरापन ही तो खूबसूरत बनाता है हमें।
संत के रूप में नहीं देखती मैं अपने देव को ,
मेरे लिए तुम दीवाने ही भले।

फिर क्यूँ इतने परेशान रहते हो ?
तुमने ख़त में लिखा था कि पिछले कुछ दिन अच्छे नहीं गुज़रे !
क्यों देव ...
किसलिए ?
इस अवस्था से बाहर आओ ।
कभी-कभी तुम इतने सरल हो जाते हो कि लोग तुम्हें स्वीकार नहीं पाते ।
थोड़े दुरूह बनो ... अपने अस्तित्व के लिए ।

तुम्हें याद है ,
जब हम पहली बार मिले थे तब मैंने पूछा था
“ क्या आप सभी के साथ इतने स्वीट हैं ! “
और जवाब में तुम हँस पड़े थे ।
उस हँसी की खनक अब भी खनकती है मुझमें ।
अपनी अंतरतम अनुभूतियों को दुनिया के शूलों से मत बिंधने दो देव !
एक छोटी सी फाँस भी उंगली में धंस कर चैन छीन लेती है ।
पलक की हर झपक के साथ रह-रह कर दर्द उभर जाता है ।

क्यूँ तुम इतने हलकान हो ?
बाहर आओ इस सबसे !
हाँ...
एक बात और ,
कटे हुये पेड़ के ठूँठ ने तुमसे जो भी कहा उस पर विचार मत करो ।
बस एक बार जाकर उसकी कोमल पत्तियों को सहला दो ,
... मेरे लिए !
घने जंगल में जहाँ दूर-दूर तक एक भी इंसान नहीं, वहाँ भी तो फूल खिलते हैं ।
वहाँ भी तो धड़कता है जीवन ...
वहाँ भी तो साँस लेते हैं पौधे
उन्हें कौन सींचता है ?
बोलो ....!
बस उस गहन वन के पौधे बन जाओ ।
देखना, एक दिन फूल ज़रूर खिलेंगे !!
फल भी आयेंगे दबे पाँव गुप-चुप ।
इस रविवार जब तुमसे मिलने आई तो ये अनार के फल झूलते दिखे ।
मैं चकित हूँ ...
तुम्हारी बगिया फल रही है और तुम्हारा ध्यान भी नहीं गया ।
इतनी बैचेनी अच्छी नहीं देव ।
मुझे तुम पर यक़ीन है
फिर तुम्हें क्यों नहीं ?

तुम्हारी

मैं !
 


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