Wednesday, 2 July 2014

एक ख़त , पाँच तसवीरें



एप्रिल फ़ूल ....
बचपन में एक-दूसरे से झूठ बोलते थे , ताकि खुश हो सकें !
क्षण-भर के झूठ में युगों का आनंद ले सकें !!
बे-सबब , बे-वजह !!!

और अब ?
अब खुद से झूठ बोलते हैं … कि कहीं आईना चहरे पे सिली हुयी सीवन ना उधेड़ने लगे।
उघड़ा हुआ सच काँटेदार धतूरे से भी अधिक खतरनाक है …

सिसकियाँ हैं कुछ !
.... जिनके दुनिया के लिए कोई मायने नहीं।
और आँसू के इक्का-दुक्का कतरे हैं , जो लाख कोशिशों के बाद भी नहीं निकल पाते ....
भीतर ही कहीं अटक कर रह जाते हैं।

खुद को " एप्रिल फ़ूल " बनाने आज बच्चे के स्कूल गया था !
वहाँ किसी ने झूठी तारीफ़ कर दी तो अपना मोबाइल उसे दे कर ये photos click करा लिए
जानता हूँ कि अब उम्र बड़ी तेज़ी से उस यौवन को धकेल रही है , जो मौसम के साथ दौड़ लगाता था।

सच कहती हो …
अब तो कंधे भी झुके-झुके से लगते हैं !
पर क्या करूँ ....
खुद ही ने खुद से " एप्रिल फ़ूल " बनने का वादा जो लिया है !!!

तुम्हारा
देव






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