Thursday, 30 June 2016

शायद इसीलिए ये ज़िंदगी, ज़िंदगी है !


प्रिय देव,
कोई है
जो संचालित करता है हमको
कभी ईश्वर,कभी प्रकृति, तो कभी प्यार बनकर।
इक्कीस जून को ही लो,
जब सबसे बड़ा दिन था
और सूरज पूरी तरह उत्तरायण था
लेकिन सबको पता था
कि इसके बाद
दिन फिर से छोटे होने लगेंगे।

कुछ ऐसा है
जो हम सबको पता होता है
मगर जिस पर हमारा कोई बस नहीं होता।
यूँ तो बस ये एक अकेला संसार है
जिसमें मैं और तुम रहते हैं।
मगर करीब से देखो
तो हर इंसान के भीतर
एक नया संसार साँस लेता रहता है।
कितने ही चेहरे,
डोलते रहते हैं
तुम्हारे और मेरे आसपास !
जिनको देखो, तो लगता है
मानो कोई अविचल, गवाही दे रहा है
...अपने होने की !
लेकिन यदि मर्म को छू दो
तो एक टीला बिखर जाता है भरभरा कर
भावनाओं का !

वो बूढ़ा...
जिसकी सफ़ेद दाढ़ी,
अब और सफ़ेद हो गयी।
अक्सर वो अदृश्य से बातें किया करता है !
मैंने देखा एक दिन
आकाश की ओर मुँह करके
ज़ोर-ज़ोर से पुकारते हुये उसे...
“या ख़ुदा
अब तो कुछ ऐसा कर
कि मैं तुझको माफ़ कर सकूँ।
देख भी ले
एक नज़र भर मुझको;
मेरे महबूब   
अब तो जाने का वक़्त भी आ गया।”

देव, पता है ...
मैंने बहुत कोशिश की
उस शख़्स के बारे में जानने की।
मगर कोई कुछ न बता सका।
उसे देखते सब हैं
मगर जानता कोई नहीं !
शायद हम सब भी ऐसे ही हैं।
हर नये दिन,
अलग-अलग चेहरों को देखने के
आदी हो चुके हैं।
कभी-कभी कोई चेहरा
गायब हो जाता है।
कभी कोई चेहरा
बड़े दिनों के बाद नज़र आता है।
पर हम इतने सख़्त हो चुके हैं
कि इस सब के पीछे का संसार
देख ही नहीं पाते।
बस हमारे अनुभवों से
दूसरों के बारे में
अनुमान लगाते रहते हैं।

कल रात टपा-टप बरसात हो रही थी
और नींद  भी मेरे साथ खो-खो खेल रही थी।
मैं उठकर ड्राईंग-रूम में चली आई।
तभी मेरे नथुनों में
एक कमाल की मादक ख़ुशबू सिमट आयी।
बाहर जाकर देखा
तो मधु-कामिनी फूल रही थी।
कुछ देर तो बस अवाक सी
उन भीगे फूलों को देखती,
उनकी सुगंध लेती रही।
फिर मेरा मन किया
कि दौड़ कर जाऊँ,
उस बूढ़े को खोज लाऊँ;
और उससे कहूँ  
“बाबा देखो,
प्रकृति ने तुम्हें एक मौका दिया है
सबके गुनाह माफ़ करने का
अपने महबूब को निर्बंध कर
उसे गले लगाने का !”

सच कहती हूँ देव
रात के उस पहर में
इन उजले फूलों की अलौकिक सुगंध,
निश्चित ही उस बूढ़े को
अहोभाव से भर देती।  
मगर मैं बेबस थी...
कुछ कर न सकी।
शायद इसीलिए
ये ज़िंदगी, ज़िंदगी है !

तुम्हारी
मैं !









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