क्या पत्थर भी कभी आईना हो सकता है !
देखो तो ज़रा
कहने को तो कोटा-स्टोन का फ़र्श
मगर जैसे आईना ....
पूरी एक ज़िंदगी का फ़ल्सफ़ा समेटे।
इधर तीखे सूरज का प्रतिबिंब,
उधर सुलगाती शुद्ध धूप,
और ये देखो तो
झीनी नेट की छाया के ऊपर से आती
चंपई डाली की परछाई;
...जैसे फूल खिला हो धूप के ऊपर !
पानी का रंग नहीं होता
मगर एक परछाई ज़रूर होती है
इसीलिए शायद ...
एक रंग पनियल भी होता है !
तुम और मैं भी तो ऐसे ही हैं
एक दूजे के लिए निराकार.....
फिर भी अपनी परछाईयों के साथ !
घूमते रहते हैं दो दुनियाओं में
अपनी-अपनी छाया लिये !
एक उम्र थी,
तब लगता था
कि स्थिर वस्तुओं की परछाई गतिमान हुआ करती है।
एक उम्र है
जब समझ आ गया है
कि सारा खेल बस रोशनी का है।
दरअसल रोशनी चला करती है
और इधर-उधर सरकती परछाई
ये बतलाती है
कि कौन कितना अंधेरे में है।
बॉब्ड हेअर वाली
वो गोर-वर्णा लड़की
जिसके सामने के दो दांतों के बीच
हलक़ी सी दूरी है।
जो हँसती है
तो उसकी आँखें बतियाने लगती हैं।
जो बड़ी सलीकेदार और कमांडिंग है
उसे किसी से प्यार हो गया है !!
और अब...
वो बिलकुल बदल गयी है।
अक्सर कहा करती है
“जाओ जहाँ जाना है तुमको
मेरा प्यार सच्चा होगा
तो फिर-फिर आओगे।”
मैंने देखा...
एक परछाई को
इधर से उधर जाते हुए
तभी महसूस हुआ
कि रोशनी ने दिशा बदल दी अपनी !
घुन्न-घुन्न की एक आवाज़
जो लगातार कानों में आती रहती थी,
जिसे मैं जीवन का हिस्सा मान बैठा था;
उस पर से पर्दा उठ गया पिछले दिनों !
कई-कई घंटों की विद्युत कटौती के दौरान
जब अचानक वो आवाज़ आनी बंद हो गयी
तब मैंने जाना
कि ये तो पुराना फ़्रिज था
न जाने कब इसने बोलना शुरू किया
और ज़िंदगी के शोर का हिस्सा बन गया।
कितना मुश्किल होता जा रहा है
प्राकृतिक और मानवजनित के बीच अंतर कर पाना
... इन दिनों !!!
कुछ चीज़ें खो देने का
भय नहीं लगता अब !!!
क्योंकि बहुत अच्छी तरह पता है
कि इनके खोने से पहले
हम खो जायेंगे निश्चित ही।
अरे, कहीं ये ना सोच
लेना,
कि मैं उदास हूँ;
पर्याप्त खुश हूँ मैं !
बस इन परछाइयों से दोस्ती हो गयी है मेरी !!
इनकी भी एक भाषा, एक लिपि
है
जिसे समझने लगा हूँ मैं !
कल ये कुछ और कहेंगी मुझसे
तब वो सब भी बतलाऊंगा तुमको !
अच्छा सुनो ...
मौसम जाने कैसा हो गया है इन दिनों
... शूल के जैसा !
हिफ़ाज़त से रहना।
तुम्हारा
देव
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