“तुम्हारे भीतर एक कृतज्ञता का भाव है देव,
I like the gratitude you have.”
उस दिन सुबह-सुबह
जब तुमने फ़ोन पर ये बात कही
तब मैं ऑफिस के लिए तैयार हो रहा था,
फिर ज्यों ही
मैं जूते के तस्मे बाँधने को झुका
मेरी आँखों से आँसू झरने लगे।
कुछ समझ नहीं आया
बस बड़ी देर तक वैसा ही बैठा रहा।
उसके ठीक दो दिन बाद
जब हम मिले,
तब तुम तो मुझे देखकर
लगातार मुस्काये जा रहीं थीं,
लेकिन मैं न जाने क्यों सकुचा गया था।
तभी मैंने तुम्हारा चेहरा देखा
लगा जैसे कुछ चबाते हुये बोल रही हो।
तुम तो सुपारी भी नहीं खातीं
फिर क्या चबा रहीं थीं
भाव या शब्द ?
बताओ न !
वो पानी का गिलास
जो तुमने अपने हाथों से
मुझे लाकर दिया था,
उसके हर घूंट में
केसर की ख़ुशबू थी।
चाहकर भी ये बात
तब बता नहीं सका था।
दरअसल शब्द ठिठौली करने लगे थे।
पहले तो पास आये नहीं
फिर पास आये
तो हौले से कोहनी मार कर
दूर छिटक गये।
इसीलिए उस दिन
कुछ कह नहीं सका।
मगर लौटते वक़्त
चुपके से रुमाल उठा लाया था
तुम्हारे स्पर्श से सराबोर
वो फूलों वाला रुमाल !
कुछ स्पर्श...
दशकों बाद भी इतने ताज़े रहते हैं
कि जैसे, अभी कल की बात हो
!
भूली तो तुम भी नहीं होंगी
एकबार जब हम दोनों घूमने गए थे
साथ में कुछ और लोग भी थे।
ज्यों ही तुम मेरी बाइक के पीछे बैठीं
मैं बहुत संभल-संभल कर बाइक चलाने लगा था।
और फिर उसी दिन .....
मंदिर की सीढ़ियों पर
जब तुमने मुझे
पेड़े का प्रसाद दिया
तब कितने हौले से
मेरी उँगलियों के दो पोर
तुम्हारी हथेली को छू गए थे।
वो स्पर्श....
वो छुअन...
आज फिर स्पंदित हो रही है मुझमें
..... तुम्हारा रुमाल बनकर !
कच्ची यादों के अहसास,
अक्सर बड़े पक्के हुआ करते हैं।
जाने कितनी ही बातें हैं
जो सिर्फ इसलिए नहीं कह पाता
कि तुमको वो बड़ी बचकानी लगेंगी।
वो कमरा ...
जिसे तुम बेतरतीब बतलाती हो
उस कमरे में आकर
मैं अपनी सारी थकान,
अपने सारे तनाव भूल जाता हूँ।
सिर्फ़ इसलिए
कि वो तुम्हारा कमरा है।
बरसों पहले एक शेर पढ़ा था
जाने क्यों आज बहुत याद आ रहा है।
“रफ़्ता–रफ़्ता बढ़ती जाती हैं मेरी महरूमियां,
और जीने में मज़ा आने लगा है अब मुझे।”
सुनो ...
मेरे सौ अभावों पर भारी है
तुम्हारा एक प्रेमिल भाव !
जो मुझमें साँस लेता रहता है
.... हरदम !
स्वप्ना मेरी
यूँ ही हक़ीक़त बनकर
मेरे साथ-साथ चलना
ख्वाबों ने मुझको, बहुत छला
है अब तक !
कुछ बातें कही नहीं जाती
बस महसूस की जाती हैं।
समझ जाओ ना !
तुम्हारा
देव
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