Thursday, 29 October 2015

नाचेंगे हम, अमीर खुसरो की रुबाई गा-गा कर




हाँ,
मैं स्वार्थी हूँ।
तुम्हारे सहारे स्व का अर्थ खोजने जो निकला।
अब तो मैं भी, मैं कहाँ रह गया मुनिया।
बस ये रूप, ये रंग ही है
जो आईने के आगे
मुझसे मेरी पहचान कराते हैं
हर नये दिन।

हमेशा यही तो होता है...

कभी तुम्हारी आवाज़,
कभी कोई तस्वीर तुम्हारी,
या फिर तुम्हारा नाम
मेरी धड़कनें बढ़ा देते हैं।
कैसे रखूँ काबू खुद पर
और क्यूँ रखूँ !

सुनो जाना.....
मैं डरपोक नहीं,
बस हड़बड़ा जाता हूँ तुम्हारे आगे
करूँ भी तो क्या ?

तुम हो ही ऐसी !

उस दिन भी तो यही हुआ
तुमने फोन पर कहा
“ देव,
मैं मिलने आ रही हूँ
पाँच नवंबर को।”
पहले तो दिल ज़ोर से धड़का
और मैंने हाँ कह दिया।
दूसरे ही पल
ये अहसास हुआ
कि मैं इतना मतलबी कैसे हो सकता हूँ।
मेरे आँसू तो तुम्हारी प्रीत में बहे थे
तुम्हारी निश्छल प्रीत !
फिर ये तो गलत होता न
कि ठीक त्योहारों के समय
इस तरह तुम्हें,
अपने आँसुओं की ख़ातिर परेशान करूँ।

उफ़्फ़
सच कहती हो तुम,
मेंटल हूँ मैं !
...मगर सिर्फ तुम्हारे सामने,
सिर्फ तुम्हारे लिये।
दुनिया के आगे तो बड़ा समझदार और संजीदा हूँ मैं।
यक़ीन मानो
कोई नहीं जानता
ना ही कभी जान पाएगा
कि मेरा बावरा स्वरूप कैसा है।
कि जब मैं बावरा होता हूँ,
तो क्या-क्या करता हूँ।
सखिया मेरी,
रहस्य ही रहेगा हमेशा
तुम्हारे देव का बावरापन !

मुझे मालूम है
तुम तारीखों के परे हो।
मुझसे बोली थीं न तुम
कि त्योहार तारीखों के मोहताज कब से ?
जानता हूँ ये भी
कि हमारे मिलन से बड़ा कोई उत्सव नहीं।
लेकिन मैं करूँ भी तो क्या?
ऐसा ही हूँ,
विचित्र सा...
कभी प्रेमी, तो कभी प्रेयसी जैसा !

सुनो...
हम जल्द ही मिलेंगे
मंद-मंद प्रकाश में
तुम्हारी वही लाल-काली पोशाक
लंबी कुरती और टख़ने तक लंबा घेरदार स्कर्ट !

नाचेंगे हम,
अमीर खुसरो की रुबाई गा-गा कर।
मैं कविता कहूँगा,
धड़कते दिल से तुम में उतरते हुए
और फिर
आँखें बंद करके निहारूंगा तुम्हें   
तब तक ....
जब तक कि,
पवित्र घण्टियों की गूंज हमारे कानों में न बज उठें।
जब तक कि,
ज़िंदगी के हठी अंधेरे कोने
प्रेमिल प्रकाश में जगमगा न उठें।
जब तक कि,
मिलने बिछड़ने के मेरे संकोच
तुम्हारी प्रीत की जोत में सुलग न उठें।

हाँ...
तब तक निहारूंगा तुम्हें
आँखें बंद करके !


हम मिलेंगे ... जल्द ही
आमीन !

तुम्हारा


देव 


No comments:

Post a Comment