Friday, 2 October 2015

मौसम मुझको सींचता रहा है ..... सीढ़ी-दर-सीढ़ी !!!


पता है जाना ......
कोई आज या कल से नहीं
बहुत-बहुत पहले से;
शायद कच्चे बचपन से ही,
मौसम मुझको सींचता रहा है
..... सीढ़ी-दर-सीढ़ी !!!

सबसे पहले गर्मी का मौसम लुभाता था
जब स्कूल की बेड़ियों से पूरे अढ़ाई महीने मुक्ति रहती थी।
शहतूत, फालसे और बरफ के गोले......
जिनको तब मैं बरफ के लड्डू कहता था। 
अह्हा
उन दिनों के सबसे अच्छे साथी !
जिनके लिए एक बार.....
मैं पच्चीस पैसे चुराकर
निक्कर और बनियान में
पिंघलते डामर की सड़क पर नंगे पैर भागा था।

जीवन बदला,
शरीर बदला !!
तुम्हारी भाषा में कहूँ तो
मोर्फोलॉजिकल और हॉर्मोनल चेंजेस आये।
.... और बारिश लुभाने लगी !!!

उफ़्फ़
क्या दिन थे वो भी
मेरा बस चले तो उन दिनों पर एक किताब लिख दूँ,
और फिर तुम उस किताब पर थीसिस लिखो।
है ना......
ज़्यादा मुस्कुराओ मत।
जानता हूँ तुम्हें अब भी बारिश लुभाती है।  
मगर मैं.....
अब बदल चुका हूँ प्रिये
पूरी तरह...। .
मुझे ना गर्मियों में कुछ खास दिलचस्पी रह गयी
ना ही,
बारिशों से कोई विशेष लगाव रहा !

अक्सर कहता हूँ ना तुमसे,
कि संक्रमण की पीढ़ी की संतान हैं हम।  
ना हम उस पीढ़ी के हैं
ना ही इस पीढ़ी के !!
कहीं बीच में डोलते रहे हैं हमेशा
इधर से उधर !!

सुनो सखिया .....
मुझे बारिश और सर्दी के बीच का
ये संक्रमण सम्मोहित करता है।  
ये गणपती के दिन,
फिर श्राद्ध में
पूरे एक पखवाड़े
हर घर से उठती धूप के धुंये की सुगंध।
क्वांर, कार्तिक, गरबा, दिवाली
ओह ओह ओह ओह !!!

इसीलिए तो ज़िंदा रहता हूँ मैं
कि इन संक्रमण के दिनों का उत्सव मना सकूँ।
यकीन मानो
मेरे शरीर के भीतर
कोई रहता है।
कभी-कभी मुझ जैसा
और कभी बिलकुल जुदा।
आँखें फाड़-फाड़ कर उसे देखने की कोशिश करता हूँ
मगर दिखता नहीं !!!
बस....
उसका अहसास बना रहता है
हर पल – हर छिन।  
कभी किसी मोड़ पर
वो और मैं...
मिल जाते हैं।
उस वक़्त समाधिस्थ हो जाता हूँ।
बंद आँखों से देखता हूँ   
खाली गिलास से पीता हूँ
लम्हा-लम्हा, घूँट-घूँट
प्यार को ही जीता हूँ।

पता है,
मेरा मन करता है
कि कोई ऐसा पाउडर ईजाद करूँ
जिसे भावों की नमी से गूँथ लो,
तो मरहम बन जाये।
जिसका लेप करते ही,
टूटे दिल जुड़ जायें।
जिसके स्पर्श मात्र से,
नफ़रतें सिमट जायें।  
जिसे मिट्टी में मिला दो,
तो प्रीत-बेल लहलहाये।

अच्छी तरह पता है
मेरा खत पढ़ते-पढ़ते
तुम अभी मुस्कायी होंगी  
और धीरे से तुम्हारे होंठ बुदबुदाये होंगे
…. मेंटल
पूरे मेंटल हो तुम देव !

मंज़ूर है...
तुम्हारा हर संबोधन !
क़ुबूल है ....
तुम्हारा दिया गया हर नाम !
बस इतना करना
मेरे किसी भी नाम को
कभी खुद से पराया न करना
कभी-भी !!!


तुम्हारा

देव





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