Friday, 3 October 2014

कई बार चाहा …..





जब – जब लगता है कि तुम्हें जान लिया,
तब – तब तुम एक पहेली बन जाती हो ।
कल रात ,
ठीक एक बजकर चालीस मिनिट पर तुमने अपने मोबाइल से फोटो लिया
और फ़ेसबुक पर लिख भेजा ......
“ये रास्ते भी नहीं सोते क्या कभी ?
तुम्हारे ख़यालों कि तरह !!! ”

उसके बाद तुम तो सो गयीं पर मुझे जगा दिया...
एक नया ख़याल देकर ।
जाने क्या सोचा करती हो,
आधी रात के बाद खिड़की पर खड़ी होकर ।

कभी – कभी लगता है कि अंधेरी रातों में तुम भी ढूँढती हो,
कोई तुम जैसा ...
वो,
जो जाग रहा है।
या फिर भाग रहा है, सुनसान सड़कों पर .... तेज़ और तेज़ !!!
ताकि पीछा करते विचार उसे पकड़ न पाएँ, जकड़ न पाएँ !
परसों रात भी तुम रोज़ की तरह खिड़की पर खड़ी थीं
और मैं तुम्हें दूर से निहार रहा था ।
नमी जब तुम्हारी आँखों से ढलक कर गालों पर ठहरने लगी तो मैं बारिश को कोसने लगा ।
अचानक याद आया,
कि अभी मई में भी तो यही हुआ था ।
तब मैंने उस नए एयरकंडिशनर को कोसा था ।

मैं अकुलाता हूँ तो तुम हँसती क्यूँ हो ?
कभी बुक-शेल्फ़ की तस्वीरें ले कर भेजती हो ,
तो कभी घंटों तक उस मोटी ज़िल्द वाली किताब के पन्ने खोल उँगलियों से जाने क्या टटोलती रहती हो ।
अक्सर लगता है
कि आँखों ही आँखों में कह रही हो
“ देव ,
क्यूँ मुझे समझने की कोशिश करते हो ?
सखी हूँ तुम्हारी ...
गति का तीसरा नियम नहीं ! ”
और फिर मैं ये सोच कर हँस पड़ता हूँ
कि मैं भी तो न्यूटन नहीं !

कई बार चाहा ,
कि तुम्हें नहीं देखूँ ,
तुमसे बात ना करूँ,
तुम्हें सोचना और जीना छोड़ दूँ ।
पर आँख बंद करते ही तुम मुझ पर तारी हो जाती हो ।
लोग कहते हैं ,
कि बढ़ती उम्र के साथ उमंग और प्रेम सिकुड़ जाते हैं ।
पर मुझे तो तुम पे फिर-फिर प्यार आता है ।

पता है ?
मेरे मन में अभी-अभी कौन सी हसरत जागी
कि आज रात एक बजकर चालीस मिनिट पर,
मैं तुम्हारी खिड़की के सामने वाली स्ट्रीट–लाइट के नीचे खड़ा हो जाऊँ ;
और ठीक एक बजकर पैंतालीस मिनिट पर,
तुम मेरे मोबाइल पर कॉल कर कहो ...
” कहाँ थे देव ?
मैं कब से तुम्हारी राह देख रही थी ! ”
बस...
उसके बाद स्ट्रीट-लाइट बुझ जाये तो भी गिला नहीं ।

तुम्हारा

देव




No comments:

Post a Comment