Thursday, 23 October 2014

आज कुछ माँगूँ तुमसे ...




बस अभी – अभी विदा किया है उन्हें ....
कन्हैयालाल नाम है उनका !
ऑपरेटेड घुटना फिर सताने लगा था
सो हस्पताल गया, एक्स-रे कराया और एक विचित्र सा रीतापन लेकर घर चला आया ।
तभी बाहर के बड़े दरवाज़े पर आहट हुई ।
देखा तो कन्हैयालाल खड़े थे ।
किराये की सायकल पर सीढ़ी को लादे हुये !
सीढ़ी , जो मैंने खरीदी थी कल शाम .......
आज उसे मेरे घर पहुँचाने आए थे पचास रुपियों की ख़ातिर ।

बातों में बात निकली
और निकलती चली गयी ।
कहने लगे ....
” नखलऊ का हूँ,
पर बहुत पहले आ गया था आपके शहर ।
जहाँ आपका घर है वहाँ तो जंगल हुआ करता था तीस साल पहले ।
लोग इधर आने में भी डरते थे । ”

फिर बात करते – करते पच्चीस साल पीछे जा पहुँचे और वहीं ठहर गए ।

“ तीन बेटियाँ थीं,
छोटी वाली तो पंद्रह महीने की ही थी, जब बीवी छोड़ गयी हमेशा के लिए ।
जो भी आया है उसे जाना है
....पर यूँ तो न जाये कोई !
हाँ,
फिर शादी नहीं की,
बच्चियों की चिंता थी । ”

अचानक लगा कि कन्हैयालाल मुझे देख कर भी नहीं देख रहे हैं ।
मेरा पूरा बदन सिहर उठा ....
क्या तुम्हारे साथ कभी ऐसा हुआ है ?
कि कोई बिलकुल नज़दीक खड़ा होकर तुमको देखे
पर उसकी आँखें तुम्हें देख ही नहीं रही हों ।

अभी मैं सहज होने का जतन कर ही रहा था कि वे दो आँखें भीग गईं ।
और भीगीं भी ऐसे कि पानी का एक भी कतरा नहीं ।
सिर्फ एक एहसास ...
पनियल होकर भी खुद से छिपती आँखों का ।

सुनो प्रिया .....
सखिया मेरी !
आज मैं रोया हूँ,
बहुत रोया हूँ ।
इसलिए नहीं कि किसी का दर्द नहीं देखा गया ।
इसलिए भी नहीं कि आज हस्पताल की लाचारी को एक अनजान शख़्स कुरेद गया ।
बल्कि इसलिए,
कि प्यार की बड़ी - बड़ी बातें आज निरर्थक लगने लगीं ।
यौवन , ताज़गी , गर्म साँसें , मचलता लहू ...
इस सब पर भारी है प्यार !

पंखुड़ी सी त्वचा,
बरसों की पगडंडी पार कर
जब सलवटों में सिमट जाये;
तब भी कुछ ऐसा रहता है, जो हर दिन जवान होता जाता है ।

आज कुछ माँगूँ तुमसे ...
मुझे इतना निर्मल कर दो
कि मेरा हृदय भी कन्हैयालाल जैसा हो जाए
कि एक दिन मैं तुम्हें खत लिखना भी बंद कर दूँ ।
पहले मेरा अस्तित्व मिटे,
और फिर मेरा नाम भी धुँधला पड़ जाए !
पर तब भी मेरा प्यार हर दिन जवाँ सा होता जाये
... और – और जवाँ ।

तुम्हारा

देव  





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