पता नहीं क्यों ...
कुछ चीज़ें होती हैं, क्योंकि उन्हें होना होता है ।
और कुछ चीज़ें कभी नहीं होतीं,
फिर भी हम उनके होने की राह तकते रहते हैं ।
अभी एक दिन ...
सुबह करीब सवा पाँच बजे नींद टूट गयी ,
अचानक महसूस हुआ कि बाएँ हाथ में कोई स्पंदन नहीं है ।
घबरा कर उठ बैठा ;
दायें हाथ से बायाँ हाथ संभाले हुये देर तक थपथपाता रहा ,
पहले सुई की सौ नोकों सी झुनझुनी हुई
फिर धीरे-धीरे निर्जीव पड़े हाथ में सामान्य संवेदनाएँ लौटीं !
अक्सर ....
शायद बचपन से ही ऐसा होता आया है
कि मेरा बायाँ हाथ दबा रह जाता है,
मेरे ही शरीर के नीचे
नींद में .....
और मैं उठ बैठता हूँ
भारी, बेजान हाथ में फिर से जान डालने की जुगत में ।
खैर !
उसके बाद नींद नहीं आई और मैं बाहर आँगन में चला आया ।
तुमने सुबह चार से छह के बीच हरसिंगार को झरते देखा है ?
देखना कभी ....
बड़ा अलौकिक लगता है
इन दिनों तो चमेली भी बहार पर है ।
दोनों की मिली-जुली खुशबू मुझे तुम्हारी दुनिया में खींच ले जाती है
।
याद है ,
पिछले साल मैं तुम्हें हरसिंगार के फ़ोटो Whatsapp किया
करता था
और तुम उन्हें अपनी dp बना लिया करती थीं ।
पिछले ही साल सितंबर में जब मैं तुमसे मिलने दिल्ली आया,
तो आँगन में झरे हरसिंगार भी चुन लाया था ।
मेरी फ्लाइट तो समय पर पहुंची, लेकिन तुम्हें देरी हो गयी ;
और वो फूल मेरी जेब में पड़े-पड़े ही मुरझा गए थे ।
पता है ...
मेरी जींस की पॉकेट पर उन हरसिंगार के निशान अब तक हैं ।
केसरिया डंठल वाले, सफ़ेद हरसिंगार !
जिनमें यूँ तो कोई खास खुशबू नहीं
पर महसूस लो तो महक उठे तन और मन दोनों।
इस शरद की पूनम पर मैं नर्मदा स्नान को गया था ।
नाव जब नदी के बीचों-बीच पहुँची तो तुम्हारा नाम ज़ोर से पुकारा ,
मगर आवाज़ दब कर रह गयी ।
नदी थी ना ....
पहाड़ों में आवाज़ दूर तक जाती है ।
अबकी जब मांडव जाऊँगा तो इको-पॉइंट से तुम्हें पुकारूँगा ।
कहते हैं कार्तिक के माह में नदी-स्नान का बड़ा महत्व है ।
दीपक बताता है
कि उसकी दादी पूरे कार्तिक हर सुबह नर्मदा में नहाने जाती थी ।
और वो किनारे पर बैठकर नदी की सतह से उठती हुयी भाप देखा करता था ।
सुनो ना .....
क्या ऐसा नहीं हो सकता ?
कि किसी कार्तिक की सुबह मैं भी नर्मदा किनारे जाऊँ,
देर तक सतह से उठती भाप को निहारूँ ....
और ज्यूँ ही सूरज पूरब में आये,
उसकी रश्मियों और उठती हुयी भाप के संगम से ‘ तुम ’ बन जाओ !
जीती जागती तुम,
स्पंदित होती तुम !
जैसे कि हर थपथपाहट से मेरे बे-जान हाथ में जान आती गयी थी,
वैसे ही हर आती हुयी हिलोर तुम्हें साकार करती जाये ।
और जब तुम पास आकर मेरा स्पर्श करो ....
तब मैं ‘ तुम ’ में घुल जाऊँ भाप बनकर ।
और फिर नदी की सतह पे ठहर जाऊँ ।
बोलो न सखी ...
कब होगा ऐसा ?
कुछ तो ऐसा हो कि ये जन्म सार्थक लगे
वरना जन्म-दिन का क्या ...
वो तो हर साल आता है
ऐसे ही ;
हर अक्टूबर, हर कार्तिक में ।
अरे हाँ ,
शुभकामनाओं में लिपटा तुम्हारा गुलदस्ता मैंने अपनी मेज पर सजा लिया
है ।
शुक्रिया सखी...
तुम्हारा
देव
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