Thursday 9 October 2014

“ ज़िंदगी हसीन है ..... है न ! ”





प्रिय देव,

शब्दों से खेलते – खेलते ख़ुद से क्यों खेलने लगते हो ?
यूँ न बह जाया करो ।
जब मैं कहती हूँ “ just flow ;  तो उसके माने ये नहीं कि तुम बहक जाओ !
याद है वो दिन ...
जब तुम मेरा हाथ थाम कर रोशनी में नहाये थे ।
क्या कोई धरातल था ?
.....तुम्हारे पैरों तले !
नहीं ना ।
बताओ तब भी तुम नहीं लड़खड़ाए ...
तो फिर अब गिरने से क्यूँ डरते हो ?
हादसे होते ही सबक लेने के लिए हैं ।
और जो सबक ले लिया, तो फिर वो हादसा हसीन हो जाएगा ।
हसीन का मतलब तो पता है ना !!!
हाँ,
तुमसे बेहतर भला कौन जानता है ।
हा हा हा

खैर....
वो लाल घाटी याद है तुम्हें ?
सफ़ेद फूलों वाली ...
उस रस्ते पर, उस घाटी में फिर से विचर आओ ।
मेरे बगैर ..... या फिर मेरे साथ !
मन की उड़ान उड़कर ।
संदेह वो दीमक है जो प्यार को खोखला करती जाती है, धीरे – धीरे ।
कमाल है,
तुम्हें मुझ पर तो कोई संदेह नहीं, मगर ख़ुद घिरे रहते हो शक़ के दायरों में ।
और मेरी सीमा ये है
कि मैं तुम्हारे दायरे में दाख़िल नहीं हो सकती ।
एक अजीब सी लक्ष्मण-रेखा बना रखी है तुमने अपने चारों ओर ।
लक्ष्मण-रेखा ....
जो तुम्हारी रक्षा नहीं कर रही,
तुम्हें डोला रही है आस्था और अनास्था के बीच ।
बाहर आ जाओ देव,
सब कुछ लाँघ कर !

उधर देखो ...
एक झीनी सी खुशी छन कर आ रही तुम पर ।
पहले ही बड़ी महीन है,
उसे और नहीं छानो ।
अब तो फैलाओ आँचल
हथेलियाँ बहुत छोटी हैं समेटने को !

और वो छोटा सा चिड़ा ...
जो नवरात्र के पहले दिन अपना खोल तोड़ कर बाहर आया था,
दशहरे की  शाम उड़ कर बादाम के पेड़ पर जा बैठा ।
बादाम का पौधा,
जो हम दोनों ने मिल कर रोंपा था !
.... वो अब पेड़ बन गया है।
और अबकी रुत तो उसमें हरे – हरे कच्चे बादाम भी लगे हैं ।
यक़ीन मानो वो फल पकेंगे ।
मीठी गिरीयों वाले उन पक्के बादाम को जब फोड़ोगे ,
तब वही चिड़िया का बच्चा आएगा तुम्हारे पास ...
उसके हिस्से की गिरी किसी और को ना दे देना ।
नहीं तो मैं रूठ जाऊँगी तुमसे ।
सच कहो ...
ज़िंदगी हसीन है
है न !
चलो हम भी उड़ चलें, इस डाल से उस डाल !

तुम्हारी

मैं !










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