कैसी हो अनजानी ,
पाठिका मेरी !
तुम्हारा ख़त मिला, पढ़कर
अच्छा लगा ।
अनपेक्षित का आनंद मुझे बड़ा रिझाता है ।
पिछला पूरा हफ़्ता तुमको ख़त लिखने की चाहना में
गुज़रा ।
जाने कितने कागज नीले कर डाले,
लेकिन भावों को शब्द नहीं मिल पाये ।
जूझता रहा खुद से पूरे सात दिन ।
उफ इस मोह का मायाजाल देखो,
शायद शब्दों से आसक्ति हो गयी !
इसीलिए भाव मेरे उतर नहीं पाये ... कोरे पन्नों पर ।
जीवन के झूले की दो ही तो डोर हैं ,
एक आसक्ति और दूजी विरक्ति ।
खैर ... ।
“ प्रिय नहीं कहूँगी। ”
यही कहा था ना , तुमने अपने ख़त
में ?
एक बात बताओ ....
प्रीत के लिए भी क्या संबोधन ज़रूरी है !
प्रीत की प्रतीति तो शब्दों से बड़ी है ।
हाँ तुम सच कहती हो ,
मैं उस दिन तुमको देख रहा था ।
तुम्हारी ही आँखों में दिख रही थी वो चमक.....
जो निस्पृह करती है वर्तमान से ।
और जब तुम मेरे क़रीब से गुज़रीं, तब भी मैं हौले से बुदबुदाया था ।
प्रश्न पूछा था मैंने ।
क्योंकि मुझे पता है, हम दोनों
की प्यास एक जैसी है ....
खोज में हैं हम दोनों !
कस्तूरी का मृग कह कर तुमने मेरी मुश्किलें आसां कर
दी ।
पर मेरी सुगंध सानिध्य में पलती है ।
सानिध्य, जो तय है ... बहुत
पहले से ।
अविश्वासी नहीं हूँ, मैं बस जिज्ञासु
हूँ ।
जिज्ञासा का अतिरेक बावरा कर देता है मुझे कभी-कभी।
अच्छा सुनो ....
एक भटकता जिस्म है,
उसमें बसती है एक प्यारी रूह .... एक प्यासी रूह !
नाम है उसका चारुलेखा ।
परसों उसने फोन किया दूर मगध से,
और मुझसे कहने लगी ...
“ अभी इसी वक़्त मन की गति से चले आओ देव ।
देखो तो मौसम का कैसा ये रूप है ।
गंगा की लहरें देहरी को चूम रहीं ।
सड़कों पर घुटनों तक पानी आ गया। ”
कुछ देर ठहरी और बोली ...
”मैं आज मौसम को पी लेना चाहती हूँ। ”
भावों की कश्ती में खेने लगी खुद को,
और फिर अचानक फफक पड़ी वो ।
उसे याद आ गया उसका प्रीतम ... जो मेरा हमनाम है ।
तुम ही कहो अनजानी ,
मुझमें क्या ढूँढती है चारुलेखा ?
उसे याद हैं पिछले दो जनम ,
देख सकती है वो बहुत दूर तक ।
फिर क्यूँ मुझमें खोजती है उसका प्रियतम ?
बोलो ... !
चलो जाने भी दो ,
अनुभूतियाँ जब समझ नहीं आतीं, तो वे अक्सर दर्शन बन जाती हैं ।
एक बात पूछूँ ...
क्या तुम कभी लिरिकल हुयी हो ?
गीत बनकर देखना ...
बड़ा मज़ा आएगा ।
हवा में लहराते स्वर किसी के ना होकर भी सबके होते हैं
।
चाह कर भी उनको छीन नहीं सकता कोई !
लब पे उमड़ जाएँ , पैरों में
थिरक जाएँ ... गुनगुनाते स्वर ।
सच कहूँ तो मेरी चाहतें ही जुदा हैं ।
सिंधु सभ्यता की लिपि के जैसा, नहीं होना चाहता मैं ।
.... अनमोल पर अपठनीय !
मैं तो रेशा –रेशा हो जाना चाहता हूँ ।
जितना तुम चाहो, उतना महीन हो जाऊँ
!
विशेष होने से एलर्जी है मुझको ।
चाहे फिर बात प्रेम की ही हो ।
भले ही नीम बेहोशी में रहूँ ,
तब भी मैं प्यार को ही बड़बड़ाना चाहता हूँ ।
तुम ही कहो ,
पागल हुये बिन क्या प्रेम किया जाता है ?
सिर्फ एक प्रेमी ... प्रेयसी का देव !
तुम्हारा
देव
निशब्द हूँ ...बहुत बहुत ही सुंदर ...प्रेम को ऐसे भी व्यक्त किया जा सकता है ..गुमां ना था ...कुछ अलग सी... हटकर
ReplyDeleteलेखन की सार्थकता पढ़े जाने में है,
Deleteऔर यदि सराहा जाये तो फिर बात ही क्या !
साधुवाद सु-मन जी ....
की मेरे भाव आपको अपने से लगे ।
:)
please ..ye work verification hta len ..cmnt karne men dikkat hoti hai
ReplyDeleteji
Deleteshukriya