देव,
सुनो ...
प्रिय नहीं कहूँगी तुम्हें !
वो अधिकार किसी और को जो दिया है तुमने ।
मैं तो तुम्हें ठीक से जानती भी नहीं ।
बस एक दिन,
ख्वाबों को टटोलते हुये तुम्हारे ख़त से गुज़री .....
तो वहाँ बैठे शब्दों ने रोक लिया ।
नहीं ...
शायद तुम्हारे भावों ने गले से लगा लिया ।
लगता है ,
जैसे खुशबू सूँघ लेते हो आस-पास फैले प्यार की ।
अनजाने प्यार को भी महसूस लेते हो तुम ।
उस दिन अचानक तुमसे रु-ब-रु हो गयी ।
भीड़ से घिरे थे तुम !
पर लगातार मेरी ओर देख रहे थे ।
जानती हूँ ...
तुम मुझे नहीं, मुझमें कुछ देख
रहे थे ।
क्या ये विस्तार है तुम्हारे प्यार का ?
या फिर तुम हर चेहरे में उसी एक चेहरे को ढूंढते
जाते हो !
समझ नहीं पायी
इसीलिए खत लिख रही हूँ ।
याद है ....
एक पुरजा
साथ लाये थे,
जिसे बड़ी मनुहार के बाद पढ़ा था तुमने... सबके आगे ।
तुम्हारी बातें अटपटी पर भावों से भरी थीं ।
“ मैं ,
ठहर जाना चाहता हूँ अब
.... सचमुच !
मगर मुझे कोई
साया नहीं मिलता
रोक नहीं पाता
चलने से खुद को
इसीलिए तेज़ी से
खर्च हो रहा हूँ
....... मैं !! ”
यही बोले थे ना तुम उस दिन ।
लेकिन मुझे क्यूँ देख रहे थे !
बोलो ?
क्या वो साया तुम मुझमें ढूंढते हो ?
और उसी दिन जब अकेले में मेरे क़रीब से गुजरे ....
तो क्या कह रहे थे अपने आपसे ?
या फिर मुझसे ही कुछ पूछ रहे थे ?
“ तुम्हारी बातें
तुम्हारी
तड़प
तुम्हारी
प्यास...
अपनी सी
लगती है । ”
यही बुदबुदाये थे न तुम्हारे होंठ !
ओ देव ....
तुम तो वो मृग हो,
जो प्रेम की हर आहट के लिए आतुर रहता है ।
फिर मुझसे क्यूँ पूछते हो ये सब !!!
कहीं ऐसा तो नहीं ...
कि प्रेम की जिस कस्तूरी को खुद में लिए फिरते हो ,
उस पर तुम्हें खुद ही भरोसा नहीं ।
तक़रार कर सकते हो पर अविश्वास मत करो ।
मैंने हाथों में कलम लेकर ,
तुम्हारा नाम लिखा है अभी !
कहो ,
तुम तक खुशबू का झौंका आया या नहीं ?
एक पाठिका तुम्हारी
अनजानी !
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