प्रिय देव ,
नहीं पूछूँगी कि कैसे हो।
बेवजह की औपचारिकताएँ मुझे
असहज कर दिया करती हैं ।
बड़ी-बड़ी बातें कर रहे हो इन
दिनों...
मेरी ओट लेकर !
वो क्या कह रहे थे तुम...?
“ मैं तो प्रतीक्षालय में
बैठा
वो आखिरी यात्री हूँ
जिसे पता है
कि उसकी ट्रेन कभी नहीं आएगी !!! ”
क्या सच में ऐसा है ?
और जो ये सच है, तो फिर मैं कौन हूँ ?
क्या लगती हूँ तुम्हारी ?
शायद कोई नहीं !
प्रेम में बौरा जाने का अनोखा
अंदाज़ है तुम्हारा ।
खुद को सताने लगते हो तुम !
जानती हूँ ,
विरह और दीवानगी मिलकर प्रेमी
को परवाना बना देते हैं ।
वो परवाना ...
जो शमा के आसपास डोलता भर नहीं
,
जो जल जाना चाहता है उसमें
।
पर जल कर मिलेगा भी तो आख़िर
क्या ?
बस मुट्ठी भर राख़ !!!
प्रेमी की मज़ार पर दीया जलाने
में मेरा विश्वास नहीं देव ।
मैं तो प्रियतम की गोद में
सिर रख कर इस दुनिया को भूल जाना चाहती हूँ ।
हाँ मैं कुछ हट कर हूँ !
मगर अपनी सोच पर पूरी आस्था
है मेरी ।
गुज़रते वक़्त के साथ इंसान मिटता
नहीं ...!
... और –और बनता जाता है ।
और अधिक अनुभव लेता जाता है
।
वैसे भी यहाँ सब हम-उम्र ही
हैं ।
बूढ़ा हो या बच्चा !
तुम ही कहो ...
आत्मा की भी कोई उम्र होती
है ?
वो तो चिरंतन है !
कल रात नींद नहीं आ रही थी
।
सिरहाने रखी तुम्हारी किताब
खोल ली ।
पता है मेरे आगे कौन सी कविता
थी ?
“ क्वांर की इक शाम को ...
”
एक अजीब सा लगाव है ना तुम्हें
,
... क्वांर के महीने से ।
और कार्तिक में तो तुम खुद
आए ....
फिर से इस धरती पर !
मुझे भी खींचते हैं ये दो महीने
अपनी ओर ।
आत्माओं का पखवाड़ा क्वांर !
नौ दुर्गा के नौ दिनों वाला
क्वांर !!
कई बार सोचती हूँ
कि ये क्वांर का महिना उस कुँवारी
युवती की तरह है ,
जो एक मूरत को मन में बसा कर
निकल पड़ी है अज्ञात की खोज में ।
लोग टोकते हैं , रोकते हैं पर वो नहीं मानती ।
नौ दिनों तक भटकती है जाने
किसके लिए ...
और अचानक दसवें दिन !
... उसी में से प्रकट हो जाता
है कोई ,
साकार रूप बनकर ।
तब ना केवल विरह रूपी बुराई
का दहन हो जाता है ।
वरन प्रेमी तक दिल की बात भी
पहुँच जाती है ।
और फिर ठीक बीस दिनों बाद ,
दीयों की जगमग और फुलझड़ियों
की उमंग तले मिलन होता है,
...जन्मों की प्यास और आस्था के अमृत का !
सोच रहे होंगे
कि मैं भी बिलकुल कमली हूँ
।
जाने कैसे ख़यालों के साथ घूमा
करती हूँ ।
पर अब क्या करें ?
जो हूँ सो हूँ ।
हाँ ये पक्का पता है
कि तुम भी बहुत कुछ मेरे जैसे
हो ।
तुम्हारी
मैं !
मगर अपनी सोच पर पूरी आस्था है मेरी ।
ReplyDeleteगुज़रते वक़्त के साथ इंसान मिटता नहीं ...!
... और –और बनता जाता है ।
और अधिक अनुभव लेता जाता है.......sabse pasandeeda panktiya ye lagi....bahut hi khoobsurat likha.....
हर बार जब भी पढ़ती हूँ खत ऐसा लगता हैं जैसे मेरे मन की बात किसी ने चुरा ली हो....इतने अपने लगते हैं खत तुम्हारे की शब्दों में नहीं बयां कर पाउंगी....क्या कोई किसी से इत्ती मोहब्बत कर सकता हैं ये सवाल भी उठता हैं मन में कई बार.......सच्ची तुम जैसा हमेशा कहते हो सब साईं की कृपा हैं.....सच में सहमत हूँ.....यूँ ही अपने खतों से खूब प्यार बरसाते रहो....आमीन !!!!!!
ReplyDeleteदेव...लगता है जैसे ये सब लिखते हुए तुम तुम नहीं कोई और ही हो ....हाँ महसूस कर पा रही हूँ ....आत्मा के तलतक उतर कर उसकी आवाज़ को अपनी लेखनी तक लाना ...ये सिर्फ तुम ही कर सकते हो ...हर जन्म के अनुभव तुम्हारे शब्दों को गहराई दे रहा है ....हाँ महसूस होता है ...कुछ बातें इस जन्म की नहीं लगती ....बस ...सोचती रहती हूँ हाथ में तुम्हारा ख़त लिए ...तुम्हारी मैं से मिलने के मन करता है अब !!!!
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