Thursday, 6 April 2017

ना चाहते हुये भी, कुछ ना कुछ अनचाहा हो ही जाता है







सर-सर फर-फर की आवाज़ आती है
इधर-उधर देखता हूँ
कुछ दिखता नहीं !
कोई लम्हा है शायद....
फड़फड़ा कर मेरे पास आ बैठा है।
एक अजीब सी प्यास जाग उठती है
जो उंगली के पोरों के सहारे चलकर
मुझको पीछे ले जाती है।

दिन, हफ़्ते और महीने !
कहने को तो साल भी नया आ गया,
पूरी चार सीढ़ियाँ चढ़ कर बैठा है।  
और बैठे-बैठे
मेरी तरफ देखकर हँसे जा रहा है !
ऐसा लगता है,
जैसे बहुत तेज़ी से सिकुड़ रहा हूँ मैं !
साहिब कहते हैं
कि देर से जले हो देर तक जलोगे....
मुझे लगता है
बुझने से पहले की
लुब्ब-डुब्ब करती दीये की ऊंची लौ हूँ मैं !!


“कितनी इगो है बाबा तुम्हारी !”
यही कहा था ना तुमने।
मुनिया मेरी...
काश,
मेरे पास कोई जाम-ए-जम होता।
जो तुमको बतलाता
कि मेरा ईगो तो बस तुम हो !

मैं तो कब का जा चुका ......
अगर कहीं किसी को नज़र आता हूँ
तो तुम्हारे कारण, तुम्हारी वजह से !

“यू शुड गेट डिटेच्ड नॉउ”
जब तुमने ऐसा बोला
तो मैंने ख़त लिखने बंद कर दिये।
फिर एक लंबा अंतराल गुज़रा
और तुमने मुझे पुकारा
“ऐसे खो गए हो
कि दिखते ही नहीं
अब तो लौट आओ !”
ये सुनकर
अच्छा तो लगा,
लेकिन सच कहूँ
ख़त लिखने का मन ही नहीं हुआ;
इसमें ईगो जैसी कोई बात नहीं।

गुज़रे दिनों एक सपना देखा था मैंने,
सपने में एक जोड़ सुंदर सी राजस्थानी मोजड़ियाँ थीं
जो शायद तुम लाईं थी मेरे लिये।
उन मोजड़ियों को पहने
मैं बहुत देर घूमा,
और जब थक गया
तो उतार कर रख दीं।
लेकिन उसके बाद

लाख कोशशें करने पर भी 
मैं उन्हें नहीं पहन पाया ।
कभी पैर बड़ा हो जाता,
कभी मोजड़ियाँ बड़ी हो जातीं !
रंग-बिरंगे फुंदों वाली
वो शानदार मोजड़ियाँ !
उफ़्फ़ ......
जानती हो,
कुछ सुख जीवन में सिर्फ एक बार आते हैं;  
...... और वह भी बहुत थोड़े समय के लिये !
कुछ देर रुककर,
फिर हमेशा के लिये चले जाते हैं।
ताकि उनकी कसक बनी रहे। 
एक सौंधी मिठास से भर उठते हैं
जब भी हम उन पलों को याद करते हैं।

वो मुलतानी लड़की
जिसने मेरे ख़त तुम्हारी दराज़ से निकालकर
चुपके से पढ़ लिये थे,
मुझे अक्सर दिख जाया करती है।
कभी किसी बच्चे के
खिले हुये चेहरे वाला मुखौटा पहने,
तो कभी
झुर्रियों से पटा हुआ,
पहाड़ी स्त्री का चेहरा लगाये !
कल वो फिर मिली थी मुझको;
कहने लगी
“देव,
तुम्हारे ख़त मेरे लिये
कॉफी की चुस्कियों जैसे हैं।
उनको घूँट-घूँट पीने में अनोखा आनंद आता है।”
मैं कुछ नहीं बोला
बस मुस्कुरा कर रह गया।

यक़ीन मानो
अब ख़ुद से कोई वादा नहीं
लहर उठेगी
तो ख़त लिखूंगा,
नहीं तो बस ... बैठा रहूँगा किनारे पर !

लो....
फिर एक गलती हो गयी
तुम्हारे पसंदीदा मेज़ पर
मेरे हाथ से कॉफी की एक बूंद छलक गई।

ना चाहते हुये भी
कुछ ना कुछ अनचाहा हो ही जाता है।
है ना !!

तुम्हारा

देव 

No comments:

Post a Comment