Thursday, 28 April 2016

अधूरी कहानियों के पात्र, अक्सर अमर हो जाते हैं





आओ,
मेरा हाथ थामो
और पीछे चलो थोड़ा
साल-दर-साल सीढ़ी उतरते हुये।

ना... ना ...
इतना पीछे भी नहीं
जितना कि तुम सोच रही हो
बस कोई दो-ढाई दशक पहले
... पिछली सदी में !
जब डाकिया सन्देस लाता था
जब तारघर से खिट-पिट की आवाज़ें आती थीं।
कभी सोचा तुमने.....
उस डाकिये को !
जो सबकी चिट्ठियाँ लाता था,
वो भी तो कभी बेकल होता होगा
अपने ही किसी पैगाम के इंतज़ार में !
मगर तब भी
कितने धीरज से पहुँचाता था वो
दूसरों तक उनके पैगाम !!!

ये तो बिलकुल वैसा ही है ना
कि जैसे मरता हुआ आदमी
अपने अंग दे जाये
किसी अजनबी को;
ज़िंदगी देने के लिए।
वो विरले होते हैं
जिन्हें.... !!

ओह,
ये मैं तुमसे क्या कहने लगा
मैं तो कुछ और कहना चाहता था
कितने ही दिनों से देख रहा हूँ
इस कबूतर को मैं
हर शाम
गोधूलि की वेला में
इस लैम्प-पोस्ट पर आ बैठता है
जाने किसको पुकारा करता है।
अजीब सी आवाज़ में।
अपनी गर्दन घुमा-घुमा कर,
धूसर होते नीले गगन को निहारता है
तो कभी नीचे आते-जाते लोगों को देखता है।
और फिर...
लैम्प-पोस्ट जलने के ठीक सेकंड भर बाद,
उड़ जाया करता  है।
मानो आह्वान करने आता है
हर शाम रोशनी का !

पक्षी हो या इंसान,
कुछ जीव विचित्र होते हैं !
जो बस दुख ढूंढ़ते रहते हैं।
ज़्यादा सुक़ून में जिनका दम घुटने लगता है।
इसीलिए फिर-फिर चल पड़ते हैं
अपनी बेचैनी तलाशने।

जब दुपहरी में लू की लपटें चलें
जब उमस ज़बरन अपने आगोश में ले ले
और जब चर्रर्र-चूँ  की आवाज़ करता सीलिंग फ़ैन भी
अपनी उष्मित बेबसी पर कराह उठे...
पूरे सालभर बाद आए हैं
फिर से,
ऐसे गर्मी के दिन।
धर्मवीर भारती के “सूरज का सातवाँ घोड़ा” वाले दिन !!!

कुछ कहानियाँ अधूरी ही सुंदर लगती हैं
साड़ी का पल्लू.... सूती कपड़े की महक वाला !
चिपचिप करती एक दुपहरी
तपता हुआ पहली मंज़िल का कमरा
बगैर पानी के घर्र-घर्र करता वॉटर(?) कूलर।
सुकोमल गोद में, सर को रखे
एक क्लीन-शेव चेहरा;
उस चेहरे पर छाए हुये
घने काले वर्तुल बाल !
बस कुछ समय का साथ....
और इसके ठीक तीन दिन बाद
रात दस बजकर तिरालीस मिनिट पर
एक मैसेज ब्लिंक हुआ
“जानते हो,
बिलकुल भरी-भरी सी हो गयी हूँ
तुमसे मिली थी ये तो अब सपने सा ही लगता है
याद ही नहीं आता क्या बातें की थीं
दो घंटे पता नहीं दो मिनिट की तरह निकल गये।”

अधूरी कहानियों के पात्र
अक्सर अमर हो जाते हैं।
..... है ना !
कभी कोई एक मुलाक़ात
इतनी पूर्ण होती है
कि उसके बाद और कुछ याद नहीं रहता
और फिर वही दो लोग
दोबारा मिलकर भी
उन विरले पलों को
कभी वैसा नहीं जी पाते।

बस एक बात और ....
भावों के कोई संदर्भ नहीं होते
और संवेदना स्पष्टीकरण नहीं खोजा करती !
ज़्यादा सोचना मत ....

तुम्हारा

देव 

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