दिन का वक़्त
तपता हुआ सूरज
जाने कहाँ से कुछ बादलों के टुकड़े चले आए;
कोई खाली मटका था शायद
कोई खाली मटका था शायद
किसी अल्हड़ किरण के टसेरे से गिरा
हवा के घर्षण से टूटा
और लटक गया वहीं कहीं
अधर में !!!
हमको लगता है कि बादल हैं छाँव वाले
कि एक बूंद जो टपकी थी अभी
वो नीर था,
सुकून देने के लिये।
लेकिन हम....
ये क्यों भूल जाते हैं,
कि सहेजा हुआ आँसू
कभी-कभी टुकड़ों से रिसता है क़तरा-क़तरा !
अजीब से हालात हैं
शाद दिखकर भी
अवसाद में जी रहे हैं हम दोनों
....इन दिनों !!!
सबकुछ होकर भी
कुछ भी नहीं होने का अहसास
अब डसता है सखी !
रात और दिन तो
बस एक चकरी के दो हिस्से हैं।
लुढ़कते, ढुलकते,
गुज़र रहे हैं चर्रर्र चूँsss की आवाज़ करते हुये।
तपिश का एक पूरा युग
अभी आना बाक़ी है।
उस पर ये बाज़ार
नकली आईना थामे
झूठे चेहरे दिखाकर तसल्ली दे रहा है।
और हम हैं कि अफीम का नशा करे
घूम रहे हैं मस्ती में !
कोई पुल कच्चा सा
कोई आह सच्ची सी
मलबा हटाने के लिये भी तो
मशीन की ज़रूरत पड़ती है ना
...इंसान को !!
“बी-टाउन में रंगीनियां कम
और दर्द अधिक हैं।”
यही कहा था उस लड़के ने
जो मेरे बे-जान हिस्से में,
जान डालने आता है हर सुबह।
मैं बस पसीना-पसीना देखता रहा था उसको।
फिर सुना,
कि रंगीनियों का फंदा बनाकर
एक हसरत झूल गयी उसपर !!!
अब उनका क्या होगा
जिनने आदर्श मान लिया था
उस बेचैन, छटपटाती हसरत को।
कितने युग देख लिये हैं हम-दोनों ने
....पिछले अढ़ाई दशकों में !!!
छप्पर की छाँह का सुख,
तुमने नहीं लिया ना;
कभी चलना मेरे साथ।
और अपना मोबाइल डाटा ऑन करके
महसूस लेना...
युगों की उस दूरी को
जिसे तय किया है हमने
इस थोड़ी उम्र में !!
सुनो...
अब तुम्हारी बातें मान लेना चाहता हूँ
कम कर दूँगा धीरे-धीरे,
खुद को सताना;
लाल सूखी मिर्च और ढेर सारी हरी मिर्च खाना।
लगातार ‘online’ दिखने से भी
परहेज़ करने लगूँगा अब !
पास रहकर भी
ख़ुद से दूर होने का ये अहसास
ठीक वैसा ही है
कि जैसे मनपसंद मिठाई
अटक जाये साँसों में, हड़बड़ी में
खाते हुये।
तुम तो अलसभोर उठकर नहा लेती हो ना
मेरा एक काम करोगी
कल सुबह जब तुम
गुलाब और मोगरे वाली
वो छोटी सी माला लाओ
तो उसे किसी तस्वीर या मूर्ति पर मत चढ़ाना
बस चुपचाप
मेरे सिरहाने रख देना
क्या पता....
गुलाब में घुली हुयी ताज़े मोगरे की ख़ुशबू
मुझमें फिर से जीवन फूँक दे ?
....शायद !!!
तुम्हारा
देव
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