Thursday, 21 April 2016

मुझे बावरा बना कर छोड़ दिया है





प्रिय देव,

एक बार....
जब हम दोनों  साथ बैठे मगन होकर,
अस्सी के दशक की फ़िल्म देख रहे थे।
याद है तब...
हमारे बीच बहस छिड़ गयी थी,
कि ये जीवन ज़्यादा नाटकीय है
....या फ़िल्में !

मैं तब तुमसे घोर असहमत थी
मैंने रस्तों को ‘S’ के आकार में मुड़ते हुये तो देखा था
मगर तब ये इल्म बिलकुल ना था
कि कभी-कभी कोई राह ‘V’ के आकार में भी ढल जाती है !
बड़ा अटपटा सा है ये
लेकिन हाँ,
मैंने देखा,
एक रास्ते को उल्टे मुड़ कर
..... ख़ुद में ही भटकते हुये !

ये वक़्त,
ये टिक-टिक सरकती सूईयाँ,
ये साँस-दर-साँस गुज़रता जीवन,
लगता है सारा दोष बस इस समय का है।
रास्ते भले ही वापस लौट जाएँ  
लेकिन समय हमेशा बढ़ता रहता है 
आगे और आगे...
यही तो है,
सारी दुश्वारियों का एक अकेला कारण।

तुम्हें पता है
मैं अक्सर निर्मल-हृदय आश्रम क्यों जाती हूँ
पहला वहाँ का सेवा-भाव
और दूजी, वहाँ के चप्पे-चप्पे मैं तैरती.... अजीब सी शांति !
कोई साल भर पहले 
एक दिन मैं वहाँ गई
तो एक शख़्स को देखा;
हरी बेंच के कोने पर बैठे
अपनेआप से बातें करते हुये !
और उसके बाद...
मैं जैसे वहीं गड़ गयी
साँस लेता, जड़ों से चिपका पेड़ बनकर !

जानते हो
वो शख़्स कौन था....
मेरे बचपन के सबसे प्यारे दोस्त
..... डॉक्टर अंकल !
लंबे, गोरे, नीली आँखों वाले।
जिनके पास मैं बचपन में जाया करती थी
कभी माँ के साथ दवाई लेने
तो कभी अकेले में टॉफ़ी लेने
या फिर सुंदर-सुंदर प्लास्टिक की खाली डिब्बियाँ बटोरने।

डॉक्टर अंकल को
वृद्ध रोगियों के आश्रम में देखकर
मुझे अचरज हुआ।  
मैं दौड़ कर उनके पास गई
उनका हाथ अपने हाथों में लिया
और खुशी से चीखते हुये पूछा
“आपने मुझे पहचाना डॉक्टर अंकल !
मैं....
आप मुझे पुरवाई कह कर बुलाते थे।”
बोलकर मैं थोड़ा झिझक गई।  
बीस साल जो गुज़र गए,
मैं भी तब ग्यारह-बारह की ही थी।
पर उनकी नीली आँखों में सुनहरी चमक आ गई
कहने लगे
“हाँ,
याद है मुझे, सबकुछ याद है।”

जाने मुझे क्या हुआ
मेरी रुलाई निकल गई
मैं फूट-फूट कर रो पड़ी
फिर अपनी उंगली के पोरों से
उनकी हथेलियों के पिछले हिस्से पर उभर आई सलवटों को खींच-खींच कर
वक़्त को पीछे लौटा लाने की
असफल कोशिश करने लगी।
और वो.... बस मुसकुराते रहे।
कितनी ही देर यूँ ही बैठे रहने के बाद
जब मैं जाने लगी
तो वो बोले...
“मिलने आती रहा करो
ताकि मुझ मरीज को भी ये लगे
कि मैं भी कभी डॉक्टर था
वरना इस दुनिया ने तो,
मुझे बावरा बना कर छोड़ दिया है।”

दिन गुज़रते रहे
मैं भी निर्मल-हृदय आश्रम जाती रही
कभी चुप रहकर
तो कभी खिलखिलाकर
डॉक्टर अंकल से मिलती रही।
एक बार कोई मुझसे बोला
"डॉक्टर साहब पढ़े-लिखे तो बहुत
पर अपनी भावनाओं को बस में रखना नहीं सीख पाये
इसलिए पगला गये।”
सुनकर मुझे अच्छा तो नहीं लगा
मगर करती भी तो क्या !!
हाँ,
इतने दिन गुज़र जाने के बाद भी
मैं अब तक उनकी तस्वीर नहीं ले पायी थी
सोचा आज हर हाल में
ये अधूरा काम पूरा कर लूँगी।
मगर आज...
जब मैं वहाँ गयी
तो डॉक्टर अंकल वहाँ नहीं थे
सब दूर देखा, तलाशा
मगर वो नहीं मिले।
किसी से कुछ पूछने की हिम्मत भी नहीं हुई।
उनकी फ़ेवरिट हरी बेंच को जाकर देखा
तो वहाँ
एक बड़ा सा पीला पत्ता पड़ा था
ना जाने किस पेड़ का
अभी-अभी शाख से टूटा हुआ सा !

देव सुनो...
मैं ख़ुद को अपराधी महसूस कर रही हूँ
नहीं जानती कि क्यों
क्या तुम कुछ बतला सकते हो
... बोलो !

तुम्हारी
मैं !





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