आज तक नहीं समझ पाया...
कि इंतज़ार सिर्फ प्रेयसी को ही क्यों करना पड़ता है।
कि दूर देस से,
हमेशा प्रेमी ही क्यों आता है।
कुछ बातें समझ से परे हैं,
फिर भी हमारी नस-नस में घुली हैं
क्योंकि वो हमको घुट्टी में मिली हैं।
और हमारी दास्तान...
तो बिलकुल उलट है इसके।
अक्सर मैं तुम्हारी राह देखा करता हूँ
अक्सर तुम व्यस्त रहा करती हो
फिर मैं तुम्हें फोन करता हूँ
कई बार तुम फोन नहीं उठा पातीं।
तो मैं ताबड़तोड़ मैसेजेस करने लगता हूँ
फिर यकायक....
तुम्हारी एक स्माइली आती है।
और ज़िंदगी को उसके मायने मिल जाते हैं।
बहुत साल पहले...
शायद लड़कपन की उम्र में,
पढ़ा था मैंने;
कि गोरी देखा करती है
बलमा की राह
परदे की ओट से !
बस....
तब से ही ये परदे मुझे लुभाते हैं।
किसी प्रेम कहानी के
सबसे सच्चे गवाह
....ये परदे !
इंतज़ार तो मैं भी करता हूँ तुम्हारा,
मगर परदे कि ओट लेकर नहीं खड़ा होता,
मेरे भीतर का मर्द झिझक जाता है शायद !
करूँ भी तो क्या
होलोग्राम स्टिकर की तरह
टैग कर दिये हैं कुछ व्यवहार
एक झुंड ने मुझ पर
इन्सानों का एक व्यवस्थित(?) झुंड ....
जिसे सब समाज कहते हैं।
मन को मसोस कर
अपने ही अंदाज़ में
देखा करता हूँ मैं तुम्हारी राह।
एक बात बतानी है तुमको
तुम्हारी गैर-मौजूदगी में
कभी-कभी चला आता हूँ मैं
‘मास्टर-की’ लेकर !
दोपहर तीन और चार के बीच
...अक्सर !
कमरे में दाखिल होता हूँ
तुम्हारी तस्वीर देखता हूँ
दीवान पर बैठकर
सामने वाली खिड़की का परदा हटाता हूँ।
वो खिड़की....
जो सड़क की ओर खुलती है।
मैं खिड़की नहीं खोलता
बस परदा हटाता हूँ
कभी उस सुंदर सी नेट को देखता हूँ
जो तुमने बड़े चाव से लगाई थी,
तो कभी उन लौहे की जालियों को....
जिनसे थोड़ी-थोड़ी देर में
परछाइयाँ उभरती हैं।
किसी दूर से आती पदचाप में
या पास से उभरती परछाई में
तुमको सुनने,देखने की कोशिश
करता हूँ;
मगर वो तुम नहीं होतीं !
अचानक ज़ेहन में
तुम्हारी बोलती हुयी तस्वीर कौंध जाती है
“देव,
आय लव माय साइलेंट माइंड-सेट।”
आह जान-ए-जां
मैं कोई सार्त्र नहीं
पर तुम मेरी सिमोन हो
सम्पूर्ण अपनेआप में
सब जैसी होकर भी, सबसे अलग।
सुनो....
कभी ऐसा भी करना
कि जब मैं तुम्हारे ही घर में
चुपके से तुम्हारी राह तकता रहूँ
तब तुम अचानक,
खिड़की में परछाई बन उभर आना।
जाने कितने जन्मों का
अधूरा ख़्वाब है ये !
ये ख़्वाब पूरा करके
मेरे इस जनम को
सार्थक कर दो ना !
तुम्हारा
देव
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