बचपन से लेकर आज तक
फागुन के महीने को
मैंने कैलेंडर से नहीं जाना !
बस, एक अजीब सा मादक
अहसास
तैर जाया करता है मेरे आस-पास
और मेरी शिराओं में
फागुन धड़कने लगता है।
फागुन...
तीन अक्षरों वाला
थोड़ा बौराया, थोड़ा मदमाया सा
नाम !
ये बात दीगर है
कि मदमाते महुए की महक
और मेरे बीच
हर बार एक कसक आ खड़ी होती है
जाने क्यों !!!
एक उम्र थी
जब झिझक का नामोनिशान नहीं था
मगर वार्षिक-परीक्षाएँ चली आती थीं
होली और मेरे बीच ... अक्सर !
तब भी लेकिन
देर रात,
जलती हुयी होलिका के चारों ओर नाचने
और सुबह-सुबह तैल-क्रीम मलकर
रंगों में भीगने से बाज़ कहाँ आता था !
समय गुज़रा
परीक्षाओं की वो उम्र बीत गयी
मगर फिर एक झिझक ने घर कर लिया
कहीं बहुत गहरे,
...मुझमें !
झिझक ....जैसे कोई दहलीज़
मन के द्वार पर !
याद है
जब पहले-पहल घर आई थी
और दहलीज़ को देख
ठिठक कर खड़ी हो गयी थीं।
अब तो घरों से सिमटने लगी है
दहलीज़ें भी....
झिझक मगर रह गयी
टिक कर वहीं पर !!
वर्जना और कुंठा से
परे ले जाता है
इसीलिए तो मुझको
ये फागुन भाता है।
भूली तो तुम भी नहीं होंगी
धुलेंडी का वो दिन...
बाइक की पिछली सीट पर बैठकर
एक रंग भरा गुबारा मैंने
तुम्हारे खुले हुये दरवाज़े के भीतर उछाला था
लेकिन वो गुब्बारा
लहराते पर्दे से चिपककर
चुपचाप नीचे उतर आया था
फिर वही गुब्बारा
खींच कर तुमने मुझ पर दे मारा था
और खिलखिलाती हुयी भाग गयी थीं
घर के भीतर !
जाना मेरी....
कैसी-कैसी यादें
कितनी-कितनी बातें
साथ लिये जीते हैं मैं और तुम !!!
वक़्त....
एक मिट्टी का लोंदा
पकड़ते-पकड़ते भी
फिसल ही जाता है
हाथों से हमारे।
इस होली पर भी
रात देर तक
कितनी बातें की
धुलेंडी के दिन मगर
अदृश्य हो गईं
जाने कहाँ तुम !
सुनो...
आज सुबह से ही
बरसों पुराने, उसी कमरे की
दहलीज़ पर मैंने
रंग सजा दिये हैं।
तुम्हारी पसंद के सूखे ऑर्गेनिक रंग
फाग की मस्ती अब भी तारी है।
यक़ीन है मुझको
तुम आओगी
और चौखट पर खड़ी होकर
मस्ती भरे अंदाज़ में
चिल्लाकर कहोगी ....
“देव
कहाँ हो तुम
कल रंग नहीं पायी
इसलिए आज आई हूँ
सतरंगी रंगों से
सराबोर करने
सिर्फ तुमको।”
‘सीमा’ मेरी
मुझे ‘असीम’ बनाने
आ जाओ ना...
झिझक की ये दहलीज़ लाँघकर !
तुम्हारा
देव
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