Thursday, 17 March 2016

अज्ञातवास मेरा प्रिय प्रवास है




प्रिय देव,
कब कहा मैंने...
कि मैं कभी हताशा की सीमा नहीं लाँघती !
कि घोर अवसाद में
ठोड़ी तक डूबकर,
जैसे-तैसे मैं
खुद को नहीं संभालती !!

मगर हाँ...
मैं ऐसा कभी नहीं करती
कि भीतर से दरकती रहूँ
और बाहर हँसती रहूँ
एक खोखली हँसी !

मैं जैसी हूँ
वैसी ही नज़र आना चाहती हूँ
चाहे कोई, कुछ भी कहे।

याद है
अभी कुछ ही दिन बीते
जब तुमने मुझे उलाहना दिया था....
“कि अज्ञातवास मेरा प्रिय प्रवास है।”
और तुम...
तुम क्या करते हो
जब निराश, हताश होते हो।
अपनों पर गुस्सा....
अपने पर गुस्सा !
है न ?
मगर क्यों...
क्यों रखें हम दो-दो चेहरे ?
और किसके लिए !

तुम्हारे बारे में कोई अनर्गल बोला करे
तुम भीतर ही भीतर रिसते रहो
और सबके आगे हँसते रहो
ये ओढ़ा हुआ चेहरा क्यों देव.....  

बीज को जब मिट्टी
दोनों हाथों से भींचती है
तब वो भी कसमसाता है
मगर टूटता नहीं !
तब ही तो अंकुर फूटता है।
अवसाद भी ऐसा ही होता है बावरे
सृजन की कसमसाहट
अवसाद के आवरण में से ही फूटती है।

फिटकरी तो देखी है ना ?
गंदगी जिससे दूर ही रहती है... हमेशा !
ख़ुद को पहचानो
मटमैले पानी के थपेड़े
तुम्हें और सचिक्कण बनाएँगे ।
नीचे बैठती जायेगी अवसाद की परत !

दीवानी कहोगे फिर से मुझे
कहे बगैर लेकिन,
रह भी कहाँ पाऊँगी !
कोई मिला है मुझे इन दिनों
रोज़ बतियाता है
देर रात तक फ़ेसबुक पर।
ख़ुद को अमरीका का बिग-गन कहता है,
और मुझे दुनिया की सबसे सुंदर औरत !
जानती हूँ
कि वो,
वो नहीं है
जो ख़ुद को बतला रहा है।
लेकिन तब भी
मैंने उसे अपना मोबाईल नंबर दे दिया।
वाइबर विडियो कॉल कर,
देखना चाहता है वो
होली वाले दिन
मेरा चेहरा।
और मैं देखना चाहती हूँ;
उसकी हद......
तुम कहते हो ना
कि विश्वास से विश्वास बढ़ता है।

ओह....
विश्वास करोगे
अभी-अभी मेरे कानों में
वही गीत गूँजा
जिसको तुम अक्सर रातों में गाते हो...
“ओ हंसिनी
मेरी हंसिनी
कहाँ उड़ चली”
बिन तुम्हारे यूं भी
कितना उड़ पाऊँगी ?
दूर जाकर भी मैं
दूर कहाँ हो पाऊँगी !!
..... क्या सोचने लगे
बोलो ?

तुम्हारी

मैं ! 






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