Thursday, 3 March 2016

ख़यालों की खैनी, सबकी अपनी-अपनी





हर इंसान
अपने साथ लेकर चलता है
कुछ न कुछ खैनी जैसा......
कागज़ की पुड़िया में लपेटे
सबसे छिपाकर
भीतर वाली जेब में कहीं !
और फिर जुगाली करता रहता है
नज़रें बचाकर,
या सर-ए-आम !
ख़यालों की खैनी
सबकी अपनी-अपनी।
कोई सुलगता सा भाव
कोई सहमा सा अतीत 
तो भरी दुपहरी में भी घुप्प अंधेरे सा लगता
... कोई डर ! 

यूं तो तुमको घड़ी भर की भी फुरसत नहीं
और देखो तो
मन ही मन कितनी गहरी उतर गयीं।
“यदि बुढ़ापे में मुझे
अल्ज़ाइमर हो जाए
तो अपने साथ मत रखना
ओल्ड-एज होम छोड़ आना।”
यही बोलीं थीं न
कल तुम मुझसे।

लेकिन सुनो
पहले ये तो बताओ
कि तुमको अल्ज़ाइमर क्यों होगा ?
और यदि तुम्हें हुआ
तो क्या मेरी भी याददाश्त चली जाएगी !
बात करती हो
पगलिया कहीं की।

सारा सारा दिन
इस जा से उस जा घूमा करती हो
कभी सपनों को थामे
तो कभी ज़िम्मेदारी को ओढ़े।
कितनी ही बार
परोसे जाने की बाट जोहता
तुम्हारा भोजन भी कुम्हला जाता है
... देगची में ही !!
लैपटॉप पर देर रात तक
जाने क्या-क्या खोजा करती हो
और सुबह सोफ़े पर
गुड़ी-मुड़ी होकर
सोयी मिलती हो
कवर को खुद से लपेटे।
 
वो...
जो तुम्हें नकचढ़ी कहते हैं
एक बार तुम्हारी
ये मासूमियत देख लें
तो पिंघल जायें।

लड़कियां...
जो सबके लिए संजीदा होती हैं,
खुद के प्रति इतनी लापरवाह क्यूँ हो जाती हैं !
पूरे दो महीनों तक
सरदर्द से जूझतीं रहीं,
और अब जाकर तुमने आँखों की जाँच कराई। 
देख लो...
नंबर निकल आया ना !
मेरी गॉगल्स-गर्ल
ऐनक लगाने का वक़्त आ ही गया।

होता है अक्सर
इंद्रियाँ जब पहले-पहल
शिथिल होने लगती हैं
तो हमें सहसा स्वीकार नहीं होता।
विश्वास करोगी ?
बीस साल पहले की कई बातें
मुझे अब भी वैसी ही याद हैं।
मगर बीस दिन पहले का कुछ भी याद नहीं।
अब नहीं सोचता मैं....
सोचने से आख़िर होगा भी क्या ?
मेरा सच तो बस, तुम ही हो !

सुनो...
उलझे हुये ख़यालों की
अदृश्य कंटीली फसल, अब और नहीं !
साथ-साथ मिलकर,
प्यार के सहारे
पार करेंगे हम
मन की डगर के सारे अवरोध !
मेरा हाथ थामकर
चलोगी ना तुम ....
बोलो !

तुम्हारा
देव 


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