Thursday, 10 March 2016

उसके ठीक पहले...



मौसम कुछ बदल गया है
सूरज अब मार्च के गलियारे से गुज़र रहा है
दोपहर में, थोड़ी देर के लिये
पर्दे खींच दिया करता हूँ
इन दिनों ऑफिस में।

तीन और चार के बीच का कोई वक़्त
बैठा हुआ एक फ़ाइल पढ़ रहा था
तभी लगा
कि मैं भारहीन हो गया !
रूई सा हल्का !!
यूँ महसूस हुआ
कि यही है वो अवस्था
मौत से पहले की।
जब आत्मा शरीर छोड़ती होगी,
उसके ठीक पहले...
ऐसा ही अहसास होता होगा। 
साँय-साँय करता
एक सजग अहसास !

आस-पास डोलते
दुनियावी जिस्म
दूर होते जाते होंगे
धीरे-धीरे !
फिर,
पूरे शरीर का प्रकाश
एक बिन्दु पर सिमटने लगता होगा।

एक सपेरा है मौत....
और उसकी लहराती बीन जैसे हैं
.... गुज़रते हुये हर दिन।
सम्मोहित सा साँप
बंद हो ही जायेगा आख़िर
एक दिन टोकरी में !

मगर उससे पहले
हर सुलगते अहसास को
साक्षी भाव से जी लेना चाहता हूँ।
पसीने की छलकती बूंदों से लेकर
तपते हुये होंठों तक !

तुम कहती हो ना
“सीमाओं पर आकर
ठिठक क्यूँ जाते हो बार-बार
जो कुछ तुम्हारे भीतर है
उसे जस का तस क्यों नहीं लिख देते
कब लिखोगे...?
Beyond the boundaries जाकर !”

सुनो ओ दीवानी
आज मेरी भी बात सुनो
मैं नहीं चाहता
कि मेरे ख़त पढ़कर
कोई वितृष्णा से भर जाये
इतनी वितृष्णा...
कि सबकुछ निस्सार लगने लगे।
मैं चाहता हूँ
कि कुछ पन्ने ऐसे छोड़ जाऊँ
जो मेरे बाद पढ़े जाएँ ...
क्योंकि,
ज़िंदा लोग कभी-कभी
गहरी छाप छोड़ दिया करते हैं
और तस्वीरें अक्सर धुँधला जाती हैं।

वो उपन्यास,
जिसका शीर्षक दस साल पहले तय किया था।
वो कहानी
,
जो सौ बार जी लेने के बाद भी
अब तक सहमी सी, पन्नों पर ठिठकी हुयी है।
दो अधूरे नाटक,
और एक सपनीली स्क्रिप्ट !
....कितना कुछ है छोड़कर जाने के लिये !!

बस यही लगता है
चकमक पत्थर जैसी इस छटपटाहट से
किसी दिन ये रूई का फाहा
सुलग न उठे
जानती हो ना
जब रूई सुलगती है,
तो बस एक किनोर दिखती है
...चिंगारी की।  
और बाद में
एक सिकुड़ी हुयी गठरी मिलती है
जो छूने भर से
भरभरा कर बिखर जाती है।
मौत मेरे बस में नहीं
मगर ये मौन तो मेरा है
इस मौन को जी लेना चाहता हूँ
शक्ति दो !!

तुम्हारा

देव 

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