Thursday, 31 March 2016

मैं एक नया विज्ञान गढ़ना चाहता हूँ







छुट्टी की उस सुबह
जब मैं, तुमको वॉइस मैसेज कर रहा था
तब बीच में एक आवाज़ गूंजी थी।
“पेप्पर,रद्दी, अटालै वाला !!!”
संवाद के बीच उभरती
उस अनजान, अजनबी आवाज़ के जैसी ही तो  है
हमारी ये ज़िंदगी भी।  

एक बहुत शांत और निर्दोष पल
जो अचानक
हम में से होकर गुज़र जाता है
फिर एक दिन....
हम उस पल को रिवाइंड करते हैं, मन ही मन।
और वो पल
हमारी ज़िंदगी की
एक हसीन याद बनकर उभर आता है।  

सच-सच कहूँ...
मुझे नहीं पता,
कि मोह क्या है !
बस इतना जानता हूँ
कि तुमने मुझसे एक वादा लिया है;
“मोह से दूर रहने का वादा !”

किसी अलसाई सुबह
उनींदेपन को ओढ़े हुये
नाक और आँख तकिये में धँसाये
जब औंधे-मुँह लेटा रहता हूँ।
जब झुटपुटे प्रकाश को देखकर,
एक तसल्ली मिलती है
कि कुछ देर और सो सकता हूँ।  
ऐसे में
ख़यालों ही ख़यालों में
जाने कहाँ से आकर
तुम मुझ पर तारी हो जाती हो।
उस पल को क्या कह कर पुकारूँ
क्या ये भी मोह है !
....बोलो ?

समझ नहीं पाता कभी-कभी
तुम तो फ़िज़िक्स की दीवानी हो ना
ज़रा ये तो बताओ
कि न्यूटन के गति के नियमों से पहले भी तो
जीवन चल रहा था !!!
माना कि उसके बाद,
नए-नए आविष्कार होने लगे
मगर प्रेम तो वही रहा !!
कैसे मान लूँ
कि प्रेम का भाव हार्मोन्स की देन है ?
हाँ,
प्रेम में होकर
कुछ अच्छे हार्मोन्स ज़रूर निकलते होंगे।
पगलिया मेरी
कब समझोगी
कि मेरा E = mc2 तो बस तुम ही हो !!

तुम्हारी तस्वीर को एकटक देखते रहना
देखते-देखते रुलाई फूट पड़ना
और ठीक उसी समय
तुम्हारा मैसेज आ जाना
क्या ये संयोग है ?
और जो ऐसा है
तो मैं एक नया विज्ञान गढ़ना चाहता हूँ
संयोग का विज्ञान !

कल किसी ने पूछा मुझसे
“देव,
कविता लिखने के अलावा
और क्या करते हो तुम !”
मैं कुछ नहीं बोला
मगर सोच में पड़ गया
कि मैं...
कविता कहाँ लिखता हूँ ?
मैं तो बस प्रेम करता हूँ !
मैंने तो बस प्रेम किया है !
इश्क़ जो कुछ करवाता है,
सिर्फ़ वही तो करता हूँ मैं !!

“चाहत के विरूद्ध जाओ
बड़ा सुख मिलेगा”
यही बोली थीं ना तुम....
लो,
तुम्हारी सारी तस्वीरें डिलीट कर दीं
सारे सहेजे हुये मैसेजेस मिटा डाले
आँसू ढलके
तो चेहरे पर पानी डाल कर छिपा लिये।

सुनो...
मैं फिर से कोरा हो गया हूँ
किसी स्लेट, किसी कागज़ की मानिंद !
अब एक नयी इबारत लिख दो ना
मेरे मन पर
अपने हाथों से
हाँ,
इतना करना,
कहीं से अमिट स्याही ले आना
नहीं चाहता
कि तुम्हारा लिखा
कभी कोई मिटा सके
मुझ पर से !!

तुम्हारा
देव



Thursday, 24 March 2016

मन की दहलीज़ें.... लाँघ लें मिलकर






बचपन से लेकर आज तक
फागुन के महीने को
मैंने कैलेंडर से नहीं जाना !
बस, एक अजीब सा मादक अहसास
तैर जाया करता है मेरे आस-पास
और मेरी शिराओं में
फागुन धड़कने लगता है।

फागुन...
तीन अक्षरों वाला
थोड़ा बौराया, थोड़ा मदमाया सा नाम !

ये बात दीगर है
कि मदमाते महुए की महक
और मेरे बीच
हर बार एक कसक आ खड़ी होती है
जाने क्यों !!!

एक उम्र थी
जब झिझक का नामोनिशान नहीं था
मगर वार्षिक-परीक्षाएँ चली आती थीं
होली और मेरे बीच ... अक्सर !
तब भी लेकिन
देर रात,
जलती हुयी होलिका के चारों ओर नाचने
और सुबह-सुबह तैल-क्रीम मलकर
रंगों में भीगने से बाज़ कहाँ आता था !
समय गुज़रा
परीक्षाओं की वो उम्र बीत गयी
मगर फिर एक झिझक ने घर कर लिया
कहीं बहुत गहरे,
...मुझमें !

झिझक ....जैसे कोई दहलीज़
मन के द्वार पर !

याद है  
जब पहले-पहल घर आई थी
और दहलीज़ को देख
ठिठक कर खड़ी हो गयी थीं।
अब तो घरों से सिमटने लगी है
दहलीज़ें भी....
झिझक मगर रह गयी
टिक कर वहीं पर !!

वर्जना और कुंठा से
परे ले जाता है
इसीलिए तो मुझको
ये फागुन भाता है।

भूली तो तुम भी नहीं होंगी
धुलेंडी का वो दिन...
बाइक की पिछली सीट पर बैठकर
एक रंग भरा गुबारा मैंने
तुम्हारे खुले हुये दरवाज़े के भीतर उछाला था
लेकिन वो गुब्बारा
लहराते पर्दे से चिपककर
चुपचाप नीचे उतर आया था
फिर वही गुब्बारा
खींच कर तुमने मुझ पर दे मारा था
और खिलखिलाती हुयी भाग गयी थीं
घर के भीतर !

जाना मेरी.... 
कैसी-कैसी यादें
कितनी-कितनी बातें
साथ लिये जीते हैं मैं और तुम !!!

वक़्त....
एक मिट्टी का लोंदा
पकड़ते-पकड़ते भी
फिसल ही जाता है
हाथों से हमारे।

इस होली पर भी
रात देर तक
कितनी बातें की
धुलेंडी के दिन मगर
अदृश्य हो गईं
जाने कहाँ तुम !

सुनो...
आज सुबह से ही
बरसों पुराने, उसी कमरे की
दहलीज़ पर मैंने
रंग सजा दिये हैं।
तुम्हारी पसंद के सूखे ऑर्गेनिक रंग
फाग की मस्ती अब भी तारी है।
यक़ीन है मुझको
तुम आओगी
और चौखट पर खड़ी होकर
मस्ती भरे अंदाज़ में
चिल्लाकर कहोगी ....
“देव
कहाँ हो तुम
कल रंग नहीं पायी
इसलिए आज आई हूँ
सतरंगी रंगों से
सराबोर करने
सिर्फ तुमको।”

सीमा मेरी
मुझे असीम बनाने
आ जाओ ना...
झिझक की ये दहलीज़ लाँघकर !

तुम्हारा

देव  

Thursday, 17 March 2016

अज्ञातवास मेरा प्रिय प्रवास है




प्रिय देव,
कब कहा मैंने...
कि मैं कभी हताशा की सीमा नहीं लाँघती !
कि घोर अवसाद में
ठोड़ी तक डूबकर,
जैसे-तैसे मैं
खुद को नहीं संभालती !!

मगर हाँ...
मैं ऐसा कभी नहीं करती
कि भीतर से दरकती रहूँ
और बाहर हँसती रहूँ
एक खोखली हँसी !

मैं जैसी हूँ
वैसी ही नज़र आना चाहती हूँ
चाहे कोई, कुछ भी कहे।

याद है
अभी कुछ ही दिन बीते
जब तुमने मुझे उलाहना दिया था....
“कि अज्ञातवास मेरा प्रिय प्रवास है।”
और तुम...
तुम क्या करते हो
जब निराश, हताश होते हो।
अपनों पर गुस्सा....
अपने पर गुस्सा !
है न ?
मगर क्यों...
क्यों रखें हम दो-दो चेहरे ?
और किसके लिए !

तुम्हारे बारे में कोई अनर्गल बोला करे
तुम भीतर ही भीतर रिसते रहो
और सबके आगे हँसते रहो
ये ओढ़ा हुआ चेहरा क्यों देव.....  

बीज को जब मिट्टी
दोनों हाथों से भींचती है
तब वो भी कसमसाता है
मगर टूटता नहीं !
तब ही तो अंकुर फूटता है।
अवसाद भी ऐसा ही होता है बावरे
सृजन की कसमसाहट
अवसाद के आवरण में से ही फूटती है।

फिटकरी तो देखी है ना ?
गंदगी जिससे दूर ही रहती है... हमेशा !
ख़ुद को पहचानो
मटमैले पानी के थपेड़े
तुम्हें और सचिक्कण बनाएँगे ।
नीचे बैठती जायेगी अवसाद की परत !

दीवानी कहोगे फिर से मुझे
कहे बगैर लेकिन,
रह भी कहाँ पाऊँगी !
कोई मिला है मुझे इन दिनों
रोज़ बतियाता है
देर रात तक फ़ेसबुक पर।
ख़ुद को अमरीका का बिग-गन कहता है,
और मुझे दुनिया की सबसे सुंदर औरत !
जानती हूँ
कि वो,
वो नहीं है
जो ख़ुद को बतला रहा है।
लेकिन तब भी
मैंने उसे अपना मोबाईल नंबर दे दिया।
वाइबर विडियो कॉल कर,
देखना चाहता है वो
होली वाले दिन
मेरा चेहरा।
और मैं देखना चाहती हूँ;
उसकी हद......
तुम कहते हो ना
कि विश्वास से विश्वास बढ़ता है।

ओह....
विश्वास करोगे
अभी-अभी मेरे कानों में
वही गीत गूँजा
जिसको तुम अक्सर रातों में गाते हो...
“ओ हंसिनी
मेरी हंसिनी
कहाँ उड़ चली”
बिन तुम्हारे यूं भी
कितना उड़ पाऊँगी ?
दूर जाकर भी मैं
दूर कहाँ हो पाऊँगी !!
..... क्या सोचने लगे
बोलो ?

तुम्हारी

मैं !