“झूठ
तुम
तुम्हारा प्यार झूठा”
तुम्हारा प्यार झूठा”
यही
बोली थी ना मैं ....
तुमसे
उस दिन !
हाँ,
उस
दिन मैं सिर्फ ख़ुद के ही बारे में सोच रही थी।
पता
नहीं कभी-कभी क्या हो जाता है
एक
अजीब सी मनोदशा में चली जाती हूँ।
फिर
किसी और की भड़ास
तुम
पर निकालने लगती हूँ।
मैं
तो बस ये चाहती थी,
कि
दुनिया मुझे तुम्हारी निगाहों से देखे....
तुम
कोरे कागज़ पर
अपनी
कलम से
एक
लकीर खींचो
और
उस लकीर पर कुछ शब्द लटका दो।
फिर
उन शब्दों से मैं झाँकूँ
बातें
तुम्हारी
और
अक्स मेरा...!!
मुझे
क्या पता था रे पीहू
कि
तुम यूँ चुप से हो जाओगे।
‘लव यू’ और ‘सॉरी’
ये
दोनों शब्द बड़े बौने लगते हैं मुझे।
ये
शब्द सिर्फ सूचना देते हैं
मन
को नहीं झकझोरते।
जाने
क्यूँ हर बार
ऐसा
होता है
कि
जब मैं तड़प कर तुमसे मिलने आती हूँ
तब
ही तुम अक्सर गुम हो जाते हो।
....
और जैसे ही पलट कर जाने लगूँ
एक
मौन आहट मुझे रोक लिया करती है।
आहट
जो तुमसे आती है
सिर्फ
मुझ तक !
उस
दिन....
मैं
तुमसे ‘कुछ भी’ कह बैठी।
और अपने
आँचल का सारा चैन गँवा दिया।
इक्कीस
जून
साल
का सबसे बड़ा दिन
ना जाने
कौन सा पहर
दिन
उजाले ही मगर
आई थी
मैं
......
तुम्हारे घर !
तुम
नहीं मिले
तो टहलने
लगी वहीं
तभी
लगा
कि पत्ते
बड़ी तेज़ी से फड़फड़ा रहे हैं।
पास
गई
तो देखा
एक छोटा सा घोंसला
लगा
जैसे पत्ता मुड़ कर अपनेआप ‘नीड़’ बन गया।
और उसके
आस-पास
डोल
रही थी
फुर-फुर
करती एक छोटी सी चिड़िया।
घोंसले
में झाँका
तो खिल
उठी मैं।
कत्थई
अंडे, छोटे-छोटे!
लगा
जैसे चॉकलेट्स या जेम्स हैं।
निहारती
रही उनको बड़ी देर
तुमको
फोन भी किया
ये पूछने
के लिये
कि क्या
तुम्हें पता है इनके बारे में ?
मगर
हाय.....
तुम
भी नॉट-रीचेबल थे।
बड़े
जतन से मैंने
घोंसले
के भीतर की कुछ तस्वीरें ली हैं।
सिर्फ
तुम्हारे लिये !
देखो
तो देव
कैसे-कैसे
दृश्य हैं
तुम्हारी
इस छोटी सी बगिया में।
एक दिन
ऑफिस से छुट्टी लेकर
मोबाइल
को भी स्विच-ऑफ करके
घर पर
ही रहना
तन और
मन से !
बड़ा
मज़ा आयेगा।
एक बात
और....
अच्छे
हो तुम,
और सच्चे
भी !
तुम्हारी
मैं
!
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