हाँ
वक़्त
के साथ तस्वीरें धुंधला जाती हैं,
मगर
कभी-कभी
दृश्य
ही धुंधले हुआ करते हैं।
अक्सर
तब,
जब
या तो मौसम नम हो
या
मन के भीतर किसी उदास कोने में सीलन आ जाए।
आषाढ़
का पहला पखवाड़ा,
छतरी
और बरसाती के बगैर गुज़रा
लेकिन
शुक्ल की द्वितीया को
राह
चलते बारिश शुरू हो गयी।
बिना
किसी आहट.....
ना
बिजली की चमक;
ना
बादलों की गरज !
आनन-फानन
एक साये तले पनाह ली
तो
ये दृश्य दिखा
‘एक घर
नीम
का पेड़
डिश-एंटीना
और
लहराती हुयी ध्वजा’
एक
आम से घर में इतना कुछ खास !!
मेरे
भीतर एक भाव जन्मा
सिकुड़
कर फैला,
और
थिर गया।
जानती
हो
हर
बार बारिश में भटकता था
खोजा
करता था जाने क्या
....बचपन
से ही।
मगर
तब समझ न पाया
कि
किसे खोज रहा हूँ।
जब
तुमसे मिला तो जाना
कि
दरअसल तुमको खोजता था
हर
बार....
हर
बारिश में।
ये
जो ध्वजा देख रही हो,
ये
मेरी आस्था है तुम्हारे प्रति....
बस
एक कपड़ा लहराता हुआ।
तकनीकी
क्रांति आ गयी
घरों
पर डिश एंटीना लग गए
पर
आस्था अब भी लहरा रही है।
प्रीत
के पालने में साँस लेती आस्था !
बहुत
साल पहले
ऐसी
ही बारिश में
एक
लड़की देखी थी ..... दिल्ली में !
उदास, खुले
बालों वाली लड़की
बालकनी
की रैलिंग पकड़े।
सबको
देखकर भी,
किसी
को नहीं देखती लड़की।
जिसका
प्रेमी मास्को में बारहवीं मंज़िल की बिन मुंडेर की छत से गिरकर...
कभी-कभी
लगता है
कि
चेहरे बदल जाते हैं
प्रेमी
नहीं बदलते
प्रेमी
शाश्वत होते हैं
हर
बारिश में प्रकट हो जाते हैं
जाने
कहाँ से !
सुनो.....
जानता
हूँ ,
कि
हम अभी नहीं मिल सकते
...चाहकर
भी !
मगर
तुम...
इस
बारिश को रीता मत जाने देना।
जब
भी रिम-झिम बूंदें गिरने लगें
अपने
घर से निकलना
घूमना,भीगना....
अपने
आस-पास देखना
कहीं
कोई थिरी हुयी उदास, नम निगाहें मिल जाएँ,
जो
छटपटा कर शांत हो चुकी हों।
रैलिंग
पकड़े कोई हाथ दिख जाये,
जिनसे
एक साथ हमेशा के लिए छूट चुका हो।
तो
दो घड़ी रुकना
बेवजह
कोई बात करना
थोड़ा
मुस्कुराना
और
तब...
तुम्हें
लगेगा
कि
हमारे बीच की सारी दूरी सिमट गयी।
उस
एक लम्हे में
दूर
बैठे ही तुम मुझे छू लोगी
सच
!!!
और
हाँ....
मैं
जा रहा हूँ
ध्वजा
लाने
प्रीत
की ध्वजा !
उस
पर तुम्हारा नाम काढ़ कर
अपने
घर की छत पर फहराऊंगा।
तुम
हँस रही हो ना
मगर
मैं संजीदा हूँ ,
बहुत
संजीदा !!!
तुम्हारा
देव
No comments:
Post a Comment