“एक
पल के लिए खुद से रूबरू होता हूँ मैं
दूजे
पल लगता है चलिये ये जगह भी छोड़िये”
पता
नहीं .....
क्यों
और किसलिए ऐसा हूँ मैं
जिस
जगह हूँ
वो
जगह ही बेचैन करने लगती है मुझे
और
मैं फिर-फिर
सुक़ून
को तलाशते हुये बेचैनियों की पनाह में चला जाता हूँ।
आमों
का मौसम जा रहा है
और
मैं इस बात को लेकर व्यथित हूँ
कि पूरे
एक साल बाद देख पाऊँगा इन्हें !
अब
खाने का वैसा मन नहीं होता
मगर
हाँ घर में आम रखे रहें
पके
हुये आमों की खुशबू से घर महकता रहे
तो
आबाद रहता हूँ मैं भीतर से कहीं।
नहीं
तो लगता है,
कि
मेरा कोई हिस्सा मुझसे अलग हो रहा है।
सुना
था कि हर इंसान पाँच-सात साल में थोड़ा बदल जाता है।
अब
महसूस कर पा रहा हूँ इस बात को।
“देख
कर लगता है अक्सर, कौन है ये अजनबी
आईने के सामने हम खुद से मिले हैं।”
पता
नहीं क्यों
गालिब
की बहुत याद आ रही है आज
शायद
आमों का ज़िक्र निकला इसलिए।
कभी-कभी
वो बूढ़ा लेखक भी याद आता है
जिसे
दिखना बंद हो गया था।
अक्सर
वो रास्ता टटोल-टटोल कर,
अपने
पुस्तकालय में जाता।
फिर
अपनी दस बरस की पोती को बुलाता
और
उससे ऊँची आवाज़ में रैक पर रखी किताबों के नाम पढ़ने को कहता।
किताबों
के नाम सुनते-सुनते इंकार में सिर हिलाता
किसी
एक नाम पर सहसा ठिठक जाता,
और
उस किताब को निकलवा कर अपने साथ ले आता।
फिर
सारा दिन,
वो
उस किताब के एक-एक पन्ने को पलट कर
अक्षरों
पर उँगलियाँ फेरा करता।
रात
को भोजन के बाद टेबल-लैंप जला कर
किताब
को गोदी में लेकर बैठा रहता......
उसके
मोटे चश्मे में से खारे पानी की एक बूंद ढलक पड़ती
और
जाने कब वो सो जाता।
आज
एक कंफेशन करना है तुमसे
मैंने
एक बार उस बूढ़े लेखक के मरने की दुआ की थी ऊपरवाले से।
और
उसके बाद मैं बहुत रोया था।
दुआ
क़ुबूल हुई भी और नहीं भी हुई
मगर
अफ़सोस.........
कि
तब तुम नहीं थी मेरे आस-पास !
मैं
अकेला छटपटाता रहता था।
पता
है क्या !
मैं
कल्पना किया करता हूँ
कि
तुम.....
उस
बूढ़े लेखक को किताब पढ़ कर सुना रही हो।
कि
तुम....
चौसा,हापुस,लाल-पट्टा, लंगड़ा और केसरिया आमों को एक चाँदी की
तश्तरी में सजा रही हो।
और
मिर्ज़ा गालिब बड़ी नफ़ासत से उन आमों को चूस कर खा रहे हैं।
जानता
हूँ
कि
ये मेरे ख़यालों की दुनिया है।
मगर
इसमें मुझे सुक़ून है
क्योंकि
इस दुनिया और इसके बाहर
एक
बहुत हसीन हक़ीक़त भी है
वो
तुम हो !
.....
और क्या चाहिए अब मुझे !
तुम्हारा
देव
सुकून तराशती बेहद सुन्दर कृति...!
ReplyDeleteSach kahti hai Anupma ji
Deletesuqoon ki talaash mein suqoon ko taraashne ka ek prayaas bhar hai
aabhar