Thursday, 25 June 2015

बारिश ने कपड़े को धरती बना दिया




आदतें कैसी-कैसी !!
कोई यक़ीन करेगा ?
कि जब तुम अकेली होती हो
तब अक्सर;
बाईं करवट लेटकर कुछ खाना पसंद करती हो !
और जब मैं लिखने को बेचैन होता हूँ,
तो पेन और कागज़ के अलावा,
पेट के बल लेटने की जगह ढूँढता हूँ।


अहा,
फिर बरसातों का मौसम आ गया।
अभी परसों की बात है
देर रात नींद खुल गई,
लगा जैसे बारिश हो रही है।
बिस्तर से उठकर बाहर निकल आया।  
जानती हो न,
टीन के पतरे और पाम के पत्तों पर
बूँदों की टपा-टप सुनना मुझे कितना अच्छा लगता है।

खड़े होकर यूँ ही
बूँदों में तुमको खोज रहा था।  
अचानक पंजों और पिंडलियों पर अजीब सी सरसराहट हुई।
एक पल को लगा,
मानो तुम हो।
तिनके से हौले-हौले गुदगुदा रही हो मुझे !
तभी ज़ोर से बादल गरजे,
बिजली की चमक में मुझे मेरे पैरों पर सरसराती चींटियाँ नज़र आयीं
....... काली चींटियाँ।


बारिश का मौसम भी कितना सुक़ून देता है न।
जेठ के बाद आषाढ़
और फिर सावन का महीना !!
कितनी-कितनी बातें,
कि चाह कर भी कभी
एक ही ख़त में न सिमट पाएँ।

गरमी जितना झुलसाती है,
बारिश उतनी ही दुलराती है।
इसीलिए तो ये बारिश इतनी अच्छी लगती है।
शायद इसीलिए वियोग भी सुक़ून देता है।
एक मीठा दर्द.....
प्यार को पूर्णता देता !
वरना दर्द भी कभी मीठा हुआ है .....
तुम ही कहो ?

अरे हाँ,
जो बात बतानी थी
वो तो छूट ही गई।
तुम्हें तो पता है
बस एक-दो कमरों तक ही सिमटा रहता हूँ मैं।
सो मेरे घर में कब-कब क्या घट जाता है
पता ही नहीं चलता।
अगली सुबह उठकर,
पीछे के दालान में गया तो चकित रह गया।
मई के महीने में गेहूँ की कोठी साफ करवा कर, 
बचे हुये पुराने गेहूँ फैला दिये थे एक कपड़े पर
.....और भूल गया था।

बारिश ने कपड़े को धरती बना दिया।
देखो तो प्रिये,
गेहूँ से जीवन फूट रहा है।
विस्मित हूँ,
आल्हादित हूँ।

लगता है मानो
एक हरा-भरा दिल है।
जो हौले-हौले मुझसे कह रहा है......

“देव,
मैं प्यार हूँ
बारिश के बाद अंकुरित होते जीवन सा !!!”

सुनो सखिया...
तुम अपना वादा तो नहीं भूली ना...
बरसात में मुलाक़ात का ?
जल्दी आना
तुम्हारे स्पर्श के बगैर
अधूरे हैं ये अंकुरण !

बेसब्री से राह देख रहे हैं तुम्हारी
...... हम सब !


तुम्हारा

देव


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