Thursday, 18 June 2015

बोलो....?




लेटता हूँ पेट के बल ...
किताब खोलता हूँ
अचानक किताब के पन्नों पर कई-कई आँखें नज़र आने लगती हैं
अक्षरों के बीच पुतलियाँ नचाती आँखें
मुझे घूरती,
मेरी टोह लेती आँखें।

हठात लगता है कि पीठ पर कुछ गड़ रहा है मेरी
पलटता हूँ किसी डरे हुये शिकार की तरह
मगर ये क्या ....
वहाँ भी बस दीवार है !!!
कहीं कोई पैनी निगाह नज़र नहीं आती।

इस बार मेरे शहर में मानसून ठीक समय पर आया है।
शायद इसीलिए मेरा मन बेचैन है।
कभी ऐसा हुआ ही नहीं
कि कोई चीज़ यूँ ठीक समय पर हो मेरे साथ !

मेरे आस-पास की दुनिया और तुम ....
मेरे लिए हमेशा दो अलग-अलग जहान रहे
फिर अचानक ऐसा क्यों ?
कि जैसे सब एक ही हैं,
क्या दूसरे लोग और क्या तुम !
कहीं कोई अंतर नहीं
उनमें और तुम में .....
बोलो ?

रिश्ते अंगूठे से दबने वाले रिमोट के बटन नहीं होते।
रिश्ते साँस लेते हैं,
यकीन मानो
जब-जब कुर्सी की टेक लेकर तुम्हारा नाम लेता हूँ
तब-तब मेरे कानों के पीछे टकराती है तुम्हारी साँसें
और एक विलक्षण खुशबू से भर उठता हूँ मैं !

बात बस इतनी सी
कि जो मैं महसूसता हूँ
क्या तुमने कभी नहीं महसूसा....
बोलो ?

जानता हूँ,
तुम नहीं बोलोगी।

अक्सर दार्शनिक अंदाज़ अपना लिया करती हैं तुम जैसी प्रेमिकाएँ।
और मुझ जैसे दीवाने,
दर्शन में भी स्पंदन खोजा करते हैं।
और अंत में उम्मीद से भरे उस डॉक्टर के जैसे हो जाते हैं,
जो बे-जान शरीर में नब्ज़ ढूँढने को इतना बेक़रार हो उठता है
कि खुद की उँगलियों की धक-धक को मुर्दे की धड़कन समझ बैठता है।


और हाँ,
ये ख़त मैंने नहीं लिखा !
मुझसे लिखवाया है,
तुम जैसी किसी ने।  
जो मेरे बहुत भीतर धँसी हुई है
....या शायद बसी हुई है।


तुम्हारा


देव

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