Friday, 5 June 2015

एक टुकड़ा बादल..... दीवानापन तुम्हारा !!!!



पीहू मेरे ....
कहाँ हो ?
कितना इंतज़ार किया आज,
मैंने तुम्हारे ख़त का।
कहा था ना
कि वादे से मत बंधा करो
वादे की गाँठ दूर से ही लुभावनी लगती है।
पकड़ो तो अक्सर फिसल जाती है।
लो मैं भी वादे पर एतबार कर बैठी
और तुम्हारे शब्दों का इंतज़ार करने लगी।
मगर ये शब्द भी पुरुष बन गए
.... मुझे विरहणी बना कर !

विरह....
जो तुम्हारा नशा है।
और अब मुझ पर भी खुमार आने लगा है उसका।

मैंने देखे हैं अटपटे से लोग,
जो साँप से डसवाते हैं अपनी जीभ !
लेकिन विरह तो आत्मा को डसता है देव
फिर शब्द खोजने पड़ते हैं
इस नशे को बढ़ाने के लिए।
खैर....


मैं आई थी तुमसे मिलने !
इस नौ-तपे में।
मगर तुम तो भीतर से ताला लगा कर घर में आराम कर रहे थे।
बस बाहर एक अधमुंदा, अलसाया स्वर आ रहा था घर्र-घर्र का !!
शायद एयरकंडिशनर या वॉटर-कूलर कोई।

मैंने सोचा,
अभी नहीं... फिर कभी !!!
वापिस जाने के लिए पलटी
तो अचानक एक विलक्षण दृश्य देखकर चकित रह गयी।
तुम्हारे घर के ठीक बाहर मैंने ये दृश्य देखा।
शांत नीला, गहरा आकाश
आसमान में ठहरा हुआ एक बादल....
बिलकुल निक्का, बच्चे जैसा !
आँखों को ठंडक देती पेड़ों की हरी लहराती शाखें।
पत्तों के बीच एक पूर्ण गोलाकृति,
जैसे ज्यामिती के मास्साब ने सधे हुये हाथों से उकेरा हो वृत्त।
गर्मी की ठिठौली करते लाल गुड़हल के इक्के-दुक्के फूल,
करंट की धारा थामे हुये,
बिजली के मोटे और पतले तार।
सड़क पर छिटके हुये पेड़ों के साये।
दूर कदंब के पेड़ तले,
पत्थर की गिट्टी का ढेर......
अपने चुने जाने की बाट जोहता हुआ !

और तुम हो
कि इस विलक्षणता को नज़रअंदाज़ किये घर में बैठे हो।
नीरवता हमेशा सृजन से जुड़ी होती है।
भले ही निविड़ रात की हो,
या नौ-तपे की किसी झुलसाती दुपहरी की।
देखते क्यों नहीं तुम देव ....

पता है अभी-अभी मैंने क्या सोचा !
तुम न इस बादल के जैसे हो
तपती धूप में विचरते
जाने किस की तलाश में,
जाने कौन सी तलाश में।
अपने विरह को और-और बढ़ाने के लिये
नौ-तपे की धूप में बची-खुची नमी को भी सुखाते हुये !!!

बादल मेरे
सुनो ना...
यूँ ही भटकते रहना,
कहीं रुकना मत।
देखना एक दिन तुम्हारा रंग कजरारा हो जाएगा।
और फिर जब सावन आयेगा
तब सब तुम्हें मेघ कह कर पुकारेंगे
और तुमसे प्यार बरसेगा मेह बनकर।

मैं रस्ता देखूँगी
तुम्हारे बरसने का !!!
जहाँ रहोगे वहीं आ जाऊँगी
तुम्हारे साये तले भीगने
सच.....


तुम्हारी


मैं !











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