Thursday 29 January 2015

लो आज पचासवाँ ख़त लिख रहा हूँ



याद है तुम्हें मेरा पहला ख़त !
“उदासी की कोख में उमंग पलती है क्या कभी?
बताओ न प्रिये.....
कि बस एक कलम दे दी है तुमने मेरे हाथों में
और थमा दिये हैं डिटर्जेंट से धुले नील लगे हुये कुछ सुफेद कागज़ ...!!!”

तब इन पंक्तियों को लिख कर कई बार लपेटा था उँगलियों पर।
फिर गुछली बना ली थी ये सोचकर,
कि भावों के उलझे हुये धागे सुबह कचरे के साथ घर से बुहार दिये जाएँगे।
मगर जाने कैसे....
सुबह उठ के देखा तो रेशा-रेशा सुलझा पड़ा था।
एक के बाद दूसरा, फिर तीसरा ....
ख़त पर ख़त लिखता चला गया
ऊब नहीं हुयी कभी !
हर बार लगा,
कि ये बात कहनी रह गयी
वो बात भी न कह पाया ।
प्यार के ताने-बाने पर बुनता रहा एक-एक ख़त तुम्हारे नाम।
लो आज पचासवाँ ख़त लिख रहा हूँ।
अभी तीन या चार दिन पहले,
तुम आई थीं सपने में !
कह रही थीं कि
“उन अधूरे नाटकों का क्या होगा ?
क्या मंच पर आने से पहले ही मार दोगे उन्हें !
और वो मंज़िल टटोलती कहानी....
उस बिन माँ के बच्चे की;
कभी पूरी होगी भी या नहीं !!!
कितना कुछ बाक़ी है करने को
और एक तुम
बस ख़त पर ख़त लिखे जा रहे हो !!


इतना ही नहीं;
तुमने मुझे उलाहने भी दिये
रुसवाई का वास्ता भी दिया
मगर मैं क्या करूँ प्रिये ...
बहुत आगे बढ़ चुका हूँ अब मैं।
ये ख़त अब सिर्फ मेरे या तुम्हारे नहीं रहे
दुआ में हाथ उठने लगे हैं इन ख़तों के लिए भी।
बड़ा भरा-भरा सा अहसास है ये।
माँ बचपन में बाल काढ़ कर
निकर की दोनों जेबें सूखे मेवों से भर देती थीं
कुछ-कुछ वैसा ही अहसास !

सुनो छोटे बालों वाली
उस दिन जब तुम पार्क में हँसते-हँसते नीचे बैठीं
तो अचानक कुछ दिखा मुझे
चाँदी के चमकते तार जैसा !
तुम्हारे बालों के बीचोंबीच।
मैं सहम गया जाने क्यों
तुम तो उम्र से परे हो न .....
फिर क्यों मैं ये सब कह रहा हूँ !!

जब भी तुम्हारा खयाल मुझसे होकर गुज़रता है
मैं सूखे पत्ते सा थरथरा उठता हूँ
जैसे किसी कगार पर खड़ा हूँ
मृत्यु से अमरत्व की ओर ले जाने वाली कगार !!!
सच कहूँ....
तुम अब कहीं नहीं हो
विलीन हो चुकी हो
...जाने कब की।
और मैं...
बीज था मैं !
अंकुर फूटा,
मैं मिट गया;
हमेशा के वास्ते।

देखो गुलदावदी खिलने लगी फिर से
बस कुछ ही दिन तो रहते हैं बहार के।
और फिर एक लंबा इंतज़ार
साल भर का !!!
उसी इंतज़ार के लिए ज़िंदा रहते हैं हम-तुम !!!
उसी इंतज़ार में धड़कती है मेरी कलाई घड़ी की सेकिंड वाली सुई।
सुनो...
नहीं जानता कि इक्यावनवाँ ख़त लिखूंगा या नहीं
ना ही जो ये पता है कि सौवें ख़त के बाद रुकूँगा या यूँ ही चलता रहूँगा।
बस एक ख़याल तुम्हारा
गिरजाघर से आती घंटी की अनुगूँज सा !!!

एक बात बोलूँ...
बहुत साल पहले एक कविता पढ़ी थी,
पहली प्रेम कविता !
और फिर छुपकर एक दुआ माँगी थी
वो दुआ कुबूल हुई...
तुम बनकर !
गिले-शिकवे मिट गए मेरे शब्द-कोश से
सच में प्रिये ....

तुम्हारा

देव


No comments:

Post a Comment