कभी कभी लगता है
कि मैं एक गुल्लक हूँ;
मिट्टी का गुल्लक !
सहेजा करता हूँ
तुम्हारे साथ गुज़ारे हुए विरले पलों की अनमोल स्मृतियाँ.....
मेरे कुम्हार ने भी क्या खूब बनाया मुझको !
अंदर से खोखला,
बाहर एक हलकी सी झिरी
जिसमें से होकर सरक जाया करती हो तुम,
.... रोशनी की मानिंद मेरे भीतर।
और ये साँचा मेरा;
भंगुर मिट्टी का....
होता जाता है
हर दिन अनमोल !
चाहत बस इतनी
कि जब मैं पूरा ‘तुम’ हो जाऊँ
तब दो प्रेमिल हाथ
आकर मुझे उठा लें
और मिट्टी में मिला दें मेरी मिट्टी को !
मैं हो जाऊँ टुकड़ा-टुकड़ा
और तुम निकल आओ मुझ ही में से।
हँस रही हो न मुझ पर....
मगर मैं खिल उठा हूँ
तुम्हारी मुस्कान की कल्पना कर।
क्या करूँ अब
ऐसा ही हूँ;
ये मेनेजमेंट के फंडे,
ये गो-गेटर्स की बातें,
मैं समझ नहीं पाता सखी।
किसी भाव के लिये उचित शब्द की तलाश में
कभी कई-कई दिन गुज़र जाते हैं,
तो कभी कोई चमकीला विचार भाव बनकर
सहज बह निकलता है मेरी कलम से।
पता है
मुझे कैसा जीवन पसंद है ?
कुछ-कुछ अमोल पालेकर की फ़िल्मों जैसा
खुली-खुली सड़कें
छोटे घर और बड़े बागीचे
जहाँ तनाव उत्सव बन जाये
और एंडिंग भले ही उतनी हैप्पी न हो
पर जीवन से कोई गिला न रह जाये।
तुम फिर हँसोगी
मगर मैंने एक जगह ढूंढ ली है
बिलकुल मेरे हिसाब की
वहाँ पे पूजा-घर है
मगर दिखावा करते भक्त नहीं।
एक छोटी सी हनुमान मंदिरी
और एक बड़ा हालनुमा शिव-मंदिर।
कोई इक्का-दुक्का ही आता है वहाँ
एक लंबी साँवली लड़की,
जो चढ़ते सूरज के साथ शिवलिंग को पनियल दूध से नहलाने आती है।
तुलसी की माला पहने सफ़ेद चन्दन लगाये बुढ़िया,
जो तांबे के लोटे से पीपल की प्यास बुझाती है।
मैं तो कभी-कभी ही जाता हूँ,
पान का बीड़ा लेकर !
जब-जब जाता हूँ
वहीं का होकर रह जाता हूँ।
घण्टों बैठा रहता हूँ मोजक वाली सीमेंट की बेंच पर;
एक-दो बार वहाँ बैठ कर मैंने तुमसे बातें भी की हैं,
....मोबाईल पर !
मगर कभी ज़िक्र नहीं किया।
जानता हूँ
तुम वहाँ कभी नहीं आओगी
इसलिए लहराती पत्तियाँ
धूप-छांह वाली दीवार
और मंदिर का गुंबद भेज रहा हूँ।
तस्वीर पर हाथ फेर कर
कुछ पल जी लेना
सुकून मिलेगा।
तुम्हारा
देव
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