Thursday 26 February 2015

पूरा हो नहीं पाता और अधूरा पसंद नहीं




एक स्वप्न पालने में लेटा मुस्काता है।
कि जैसे बेड़ियाँ खुल चुकी हैं सारी !
अदृश्य बेड़ियाँ....
जिनके बोझ ने हमें कभी बढ़ने नहीं दिया,
प्रीत की उस पगडंडी पर।
एक घुन छोड़ दिया था किसी ने शायद
वो घुन लग गया
सुनहरे गेहूँ सी संभावनाओं को
....संभावनाएँ प्रेम की !!!

और अब...
लगता है कि प्रेम नहीं किया
कोई कर्ज़ लिया था ....
दीवालियेपन की कगार पर खड़े होकर।
ब्याज चुकाते-चुकाते बीत जाएगी ये उम्र यूँ ही।

आईने के आगे खड़े होकर हर दिन,
करता रहता हूँ इंतज़ार।
इंतज़ार उन झुर्रियों का,
जो अपनी बारी आने की राह तका करती हैं।
झुर्रियाँ.....
जिन्हें आकर और-और गहराते जाना है।
मुझ पर...
और तुम पर भी।

.....मेरी सहचरी !!!
बहुत दूर होकर भी
मेरे पास ही तो रहती हो हमेशा।
जब-जब तुम्हें देखा;
लगा,
सद्य-यौवना है कोई !
एक कली....
जिसके खिलने का इंतज़ार बगिया भी कर रही है बेसब्री से।
कभी निगाह ना मिला पाया
तो कभी नज़रें न हटा पाया।
उफ....
ऐसा क्यों होता है ये प्यार !!!

अच्छा सुनो,
एक बात तो बताओ,
हर वक़्त ऐसा क्यूँ लगता है?
कि कहीं....
कुछ अधूरा छूट गया हो जैसे !
कि पीते-पीते थक गया,
पर प्यास ना बुझी हो जैसे !
कि ये जनम भी,
ना-काफ़ी है जैसे !
कि तुमको पहचान कर,
और भी अजनबी बन गया हूँ जैसे !

सुनो संयोगिता......
मैं पृथ्वीराज बनकर,
तुम्हें उठा लाऊँ तो भी
जो कुछ तुम छोड़ आओगी वहाँ
उसे कैसे बटोर पाऊँगा?
पूरा कभी कुछ हो नहीं पाता,
और अधूरा मुझे पसंद नहीं।
इससे भले तो हम दूर ही सही।

कभी न मिलकर भी
कोसों दूर रहकर भी
जीते रहेंगे
पीते रहेंगे
साँस-साँस, घूँट-घूँट
उड़ेलकर इक दूजे को
विरह के प्याले में !!!
प्रियतमा मेरी...
सहमत हो ना?

तुम्हारा

देव
 




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