परत-दर-परत
चलती रहती है ज़िंदगी।
और उन परतों पर उतरते-चढ़ते जिस्म
पहली,दूसरी,तीसरी,चौथी.....
परत-दर-परत,
फिर-फिर सामंजस्य पिरोता रहता है इंसान !
.... आखिरी साँस तक !!!
हर दिन, हर हफ्ते, महीने और साल की
एक-एक परत।
कोई बिलकुल महीन झिल्ली जैसी,
तो कोई बहुत मोटी।
किसी में सूखे आँसू,
तो किसी में गीली खुशी।
जाने कैसे....
चलता, जीता, साँस लेता रहता है हर
शख़्स
थक कर भी नहीं थकता।
हाँ,
बीमार होता है
प्रताड़ित होता है
मरता है;
मगर तब भी चलता रहता है।
कभी सट कर, तो कभी अलग होकर !
लोग बताते नहीं, छिपा जाते हैं बड़ी कारीगरी से
लेकिन हर इंसान की एक ऐसी रहस्यमय अदृश्य परत है
जिसमें उसने अपना अनाम, गुमनाम प्यार संजो रखा है।
प्यार...
जो उम्र के साथ खदकता है
वक़्त की हांडी में पकता है
प्यार...
जिसकी तलाश में उम्र गुज़र जाती है।
जन्मों का प्यार,
सदियों का प्यार,
अधूरा होकर भी साँसों में पलता प्यार !
ज़रूरी तो नहीं
कि हर मन में बसी मूरत साकार हो जाये।
है एक ....
दूधिया रंग में कत्थई छींटे सी मासूम लड़की
इमली के पत्तों सी
दिखने में छुई-मुई, स्वाद में खट्टी !!!
बोलते-बोलते अचानक चुप हो जाती है।
देखा करती है एकटक
फिर ज़ोर से हंस पड़ती है
कहने लगी
“ देव,
कोई मिला नहीं आज तक मुझे ...
मेरे सपनों, ख़यालों के जैसा।”
“और जो कभी मिल गया तो?”
हठात मैंने पूछा।
“तो फिर बुनने लगूँगी उससे बेहतर का ख़्वाब।
वो...
जो कहीं नहीं है
कभी नहीं मिलेगा
उसका सपना।”
उसकी बात सुनकर मैं वहीं गड़ गया
... बहुत गहरे, किसी अदृश्य धरातल में।
सारे स्पंदन जड़ हो गये
जैसे हरा-भरा पेड़ छू भर देने से सूखा ठूँठ बन गया हो।
फिर वहाँ नहीं रुका....
चला आया तत्क्षण !
पता है ...
अंदर से कहीं सिकुड़ सा गया हूँ मैं।
सोच रहा हूँ
तुम न मिली होतीं
तो मैं भी उसी के जैसा बन गया होता
हर साँस के साथ मिटता
अदृश्य परतें गढ़ता
दुनिया के आगे हँसता
और अपने ही बोझ को ढोता रहता
....ता-उम्र।
इस बेहिसाब भीड़ में,
मुझे ढूँढ कर
मेरा हाथ थाम लेने के लिए शुक्रिया सखी
तुम्हारा
देव
No comments:
Post a Comment