Thursday, 5 March 2015

सबसे छिपाया मैंने, पर तुम से कह रहा हूँ...




यूँ तो मेरे दिल पर कोई बोझ नहीं,
और जाने कितने दिनों बाद याद आया है ये वाकया भी।
कस्बे में रहता था,
सपनों को जीता था।
हर वक़्त यही सोच कर चलता था,
कि भूल से भी चींटी पर पैर न पड़ जाये।

बचपन और लड़कपन क देहरी थी वो
एक पैर इधर था और दूसरा पैर उधर !
उन्हीं दिनों नया-नया शौक चढ़ा था,
रातों को जाग कर पढ़ाई करने का !
हर रात दोस्त के घर चला जाता,
जहाँ पर पढ़ाई कम और बुनाई ज़्यादा होती।
बुनाई...... सपनों की।
सपने.... जिनकी कोई तस्वीर नहीं थी।
बड़े छितरे-उलझे, धुंधले से सपने।

परीक्षा में अभी दो हफ़्ते बाक़ी थे
फागुन की पूनम आने वाली थी
मदमाते महुए की महक वातावरण को मदहोश कर रही थी।
किताब खोली पर मन नहीं लगा।
रात ग्यारह बजकर कोई बीस-पच्चीस मिनिट ऊपर हो चुके थे।
मैं और मेरा दोस्त मस्ता कर निकल पड़े, काली लहराती सड़कों पर।

पहले तो वीरान सड़क पर चॉक से कुछ ऊल-जुलूल लिखते रहे, फिर दौड़ लगाने लगे।
दौड़ते-दौड़ते जब थक गए,
तो एक खंभा पकड़ कर हाँफने लगे।  
हाँफते-हाँफते देखा तो एक लेटर-बॉक्स नज़र आया।
हाँ,
पोस्ट-ऑफिस का वही लाल डब्बा;
जो अब बहुत कम दिखाई देता है।
जाने क्या सूझी,
जो उस डब्बे के अंदर हाथ डाल दिया
उँगलियाँ अभी पूरी तौर से अंदर गयी भी नहीं थीं
कि हाथ में एक लिफ़ाफ़ा आ गया।
हम दोनों मचलकर
फिर उल्टे पाँव भाग खड़े हुये।
अपने कमरे में पहुँचे,
दरवाज़ा अच्छी तरह बंद किया
साँसों को काबू करने की कोशिश की
और धड़कते दिल से लिफ़ाफ़ा खोल लिया।

दो तस्वीरें थीं,
जो फिसल कर नीचे गिर गईं
और एक ख़त था चार पन्नों का !!!
“ मेरे चाँद,
देखो तुम्हारा बेटा अब बड़ा हो गया है।
पापा-पापा कहता है,
तुम्हारी तस्वीर के आगे देर तक हँसता रहता है।
तुम कब आओगे ?
रातों को नींद नहीं आती।
तकिया मेरा मुँह चिढ़ाता है
आँसू थमते नहीं,
मैं रोती हूँ तो तुम्हारा नादान बेटा समझता है,
कि मैं उसके साथ कोई खेल, खेल रही हूँ।
वो ताली बजा-बजा कर हँसता है।
और तुम....
बे-दर्द बनकर दूर अरब देश जा बैठे।
इस बार मेरी तस्वीर के साथ बच्चे की तस्वीर भी भेज रही हूँ।
कि कहीं तुम्हारा दिल पिंघले
और तुम कुछ दिनों के लिए ही सही,
अपने घर आ जाओ......”

मैं इसके आगे कुछ पढ़ न सका।
बस वे दो फ़ोटो उठाकर एक बार देखे,
जो उस लिफ़ाफ़े से गिर गए थे
और रोते-रोते भाग कर घर आ गया।

मुझे आज भी नहीं मालूम कि मैं क्यों रोया था
हाँ इतना पता है,
कि एक ज़बरदस्त अपराध-बोध मन में था।
साथ ही अपने पिता के हाथों पिट जाने का डर भी।
अगले दिन वो दोस्त मेरे पास आया,
मुझसे उम्र में थोड़ा बड़ा था वो।
बोला....
”तू चिंता मत कर,
मैं उस ख़त को एक नए लिफ़ाफ़े में डालकर
पता लिखकर पोस्ट कर दूँगा।”
ऐसा लगा जैसे किसी की ज़िंदगी वापस लौट आई।

परीक्षा के बाद मैंने वो कस्बा छोड़ दिया
लेकिन आज वो याद फिर से मुझे भिगो रही है।
पिंघलते मोम की मोटी-मोटी बूँद बनकर…….
मैं फिर से उस कस्बे में जाना चाहता हूँ
फिर उस दोस्त से मिलना चाहता हूँ
ये पूछने कि उसने ख़त को फिर से पोस्ट किया या नहीं ?
पर डर लगता है
कि कहीं वो ख़त पोस्ट करना न भूल गया हो !
और उससे भी बड़ा डर ये,
कि कहीं वो ये वाकया ही न भूल चुका हो !!!
मैं क्या करूँ प्रिये
कुछ सूझ नहीं रहा............

तुम्हारा

देव










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