Friday, 13 March 2015

मिलोगी तो बोलोगी... फक्कड़ कहीं का !!!






तारीख़ से परे कभी नहीं हो पाया ......
ना ही जो कोशिश की मैंने।
ये तारीख़ें मेरे लिए नाभि-नाल जैसी हैं
इनको याद रखकर ही तुमसे जुड़ पाता हूँ।
तारीख़ें बिसरा कर मेरी दशा डाल पर ही मुरझा गयी कली जैसी हो जाती है।

आज भी नहीं भुला पाता वो इक्कीस मार्च !!!
जब तुमने अचानक डिटैच्ड होने का फैसला लिया।
बिना किसी कारण.... ऐसे ही बस।
संपर्क के सारे साधन काट दिये थे तुमने
और मैं....
मूक प्रत्यक्षदर्शी सा हतप्रभ रह गया।
कानों में साँय-साँय सन्नाटा गूँजने लगा था।
तभी किसी ने झकझोर कर पूछा था
“तुम ठीक तो हो देव।
क्या हुआ तुम्हें?
अचानक क्यों काला पड़ गया चेहरा तुम्हारा ?
कुछ नहीं कह पाया,
हड़बड़ा कर रह गया था।

सिद्ध हो तुम !!!
और मैं साधारण....
नहीं चाहता मैं सिद्ध होना।
सारे सिद्ध अदृश्य जगत में जीते हैं।
... और मेरा मन तो बस दृश्य में रमता है।

कमाल तो तब हुआ,
जब बरस भर लंबे इंतज़ार के बाद
तुमने मुझे इक्कीस मार्च को ही फिर से मिलने बुलाया।
मैं ठहरा बावरा ...
कर बैठा ज़िक्र तारीखों का !
और तुम फिर से चली गईं।
...अपने अदृश्य लोक में।
ये कहते हुये,
कि
“तुम अब भी वहीं हो देव
जहाँ पर थे...
एक सीढ़ी भी नहीं चढ़ सके
इतना वक़्त यूँ ही गुज़ार दिया।”

पता है....
इस बार तुम्हारे अदृश्य हो जाने पर भी मैं बेचैन नहीं हुआ।
तुम्हारी बातें सुनकर भी मेरा रंग स्याह नहीं हुआ।
बस हँसी आ गयी अपने आप पर।
देखो तो ...
कितना सच्चा प्रेमी हूँ मैं,
ज़रा भी नहीं बदला।
वैसा ही हूँ जैसा तुमने छोड़ा था।
वहीं पर हूँ जहाँ तुमने छोड़ा था।
अब और मस्त हो गया हूँ।
मिलोगी तो बोलोगी...
फक्कड़ कहीं का !!!

नहाने जाता हूँ तो पानी से खेलता रहता हूँ।
राह चलते अचानक किसी नंबर-प्लेट पर निगाह पड़ जाये
तो उन अंकों को तुमसे जोड़ने लगता हूँ।
अभी एक दिन थिएटर में....
एक माँ ने अपनी बच्ची को पुकारा !
संयोग तो देखो,
उस बच्ची का नाम भी वही था
जो नाम तुम्हारा है।
बस
फिर और अधिक देर थिएटर में नहीं रुक पाया।
उस बच्ची को अपलक देखता रहा,
और बाहर चला आया।

क्यों मुझे व्यर्थ ही इन छोटी-छोटी खुशियों से महरूम कर रही हो।
अपने जगत में खुश हूँ मैं !!
सच्ची प्रिये .........

तुम्हारा


देव  

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