Thursday, 6 November 2014

मैं अपनी विरासत कहाँ सहेज पाया !




सुबह के यही कोई सात बज कर पचास मिनिट हुये थे ।
खिड़की खोली तो हवा का झौंका चेहरे से टकरा गया ।
लगा आज की हवा कुछ अलग है ।
जो अजनबी होकर भी अजनबी नहीं है  !
बस एक संदेस लायी है ...
कि सर्दी का लश्कर आ पहुँचा है ।
डेरे डल रहे हैं, तम्बू तन रहे हैं ।
हाँ,
कल ही तो दो तिब्बती लड़कियाँ दिखी थीं ।
लड़कियाँ जो हर साल स्वेटर, मफ़लर और ऊनी टोपियाँ लाती हैं।
अचानक सुथी याद आ गयी .....
यही नाम था उसका ।
वो दिल्ली में मिली थी, बारह साल पहले !
लंबी, तांबई, कमर पर टैटू सजाये
लहरा कर चलती थी ।
अक्सर कहा करती थी कि
“ इंदौर आऊँगी
मेरी फ़्रेंड्स रहती हैं वहाँ । ”
ओह ......
वक़्त की गोल बिसात पर एक और पासा घूमा और थिर गया ।
ये सब सोच ही रहा था कि गैया के रंभाने का स्वर सुनाई दिया ।
स्वर में इतनी करुणा थी कि मैं असहज हो उठा ।
रहा नहीं गया, उठकर बाहर चला आया ।
जैसे ही गाय ने मेरी आहट सुनी, पलट कर फिर रंभाने लगी ।
इस बार स्वर और अधिक दारुण और तीव्र था ।

हतप्रभ सा मैं कुछ रोटियाँ और ब्रेड ले आया ।
गाय मुझे देर तक देखती रही, फिर अनमनी सी खाने लगी ।
होदी का पानी भी नहीं पीया।
खाते-खाते फिर मेरी ओर मुँह करके रंभायी
कुछ क्षण ठहरी और चली गयी ।

उसी जगह खड़ा हूँ पर वहीं नहीं हूँ !
बहुत .... बहुत पीछे चला आया हूँ ।
निक्कर, बुशर्ट वाला मैं !
कंठाल नदी, कचहरी के पीछे वाली टेकरी !
ये ठंड का मौसम....
वो दिवाली की छुट्टियाँ ।
और हम चार-पाँच दोस्तों का टेकरी पे चढ़ कर,
जाली-बोर की झाड़ियों में से छोटे-छोटे लाल जाली-बोर चुनना ।
सबकुछ आज याद आ गया
फिर खुद से एक शिकायत की मैंने...
कि मैं ये सब भूला ही क्यों था ?
नहीं , शायद मैं कुछ भी नहीं भूला था
बस वक़्त ने एक ताला जड़ दिया था, बचपन के उन दिनों पर ।
जिसे आज गाय के रंभाने ने खोल दिया ।

ओह प्रिया ....
मुझे लगता है कि मेरा बचपन बहुत समृद्ध है ....
उसमें नदी है, पहाड़ है, पेड़ों पर चढ़ाई है ।
बबूल के कांटे हैं, बेशरम की झाड़ियाँ हैं ।
साँप और बिच्छू हैं, जंगली सियार हैं ।

मैं अपनी विरासत कहाँ सहेज पाया !
सिर्फ पछताता हूँ, याद करता हूँ और घुटता हूँ ।
मगर हाँ ,
तुम्हारे प्रेम की थाती सीने से लगाए रखना चाहता हूँ ।
जब तक कि मेरी साँसें साथ न छोड़ें !
वही एक संजीवनी है,
जो पल-पल की घुटन और असमय अवसान से मुझे बचाए हुये है ।
मैं निराश नहीं हूँ सखी
बस उद्वेलित हूँ ।
तुम समझ रही हो न !!!

तुम्हारा

देव




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