क्या कह रही थीं तुम .....
पगली कहीं की !
कि,
“मुझ पर ख़त ना लिखा करो देव
किसी को पसंद नहीं आएंगे।”
अच्छा एक बात कहो
ये ख़त, क्या मैं ये सोच कर लिखता हूँ
कि किसी को पसंद आएंगे या नहीं !
या कि फिर
प्यार तुम्हें करूँ और ख़त किसी और पर लिखूँ ....
बोलो !!!!
तुम,
जो दिन-रात चलती रहती हो घड़ी की टिक-टिक सूइयों जैसी।
तुम,
जो आटा महीन पीसने की जुगत में खुद भी पिसती रहती हो।
तुम,
जो चावल के दाने का कण देखने के लिए खुद उबल पड़ती हो ।
तुम,
जब ये कहती हो कि तुम पर ख़त ना लिखूँ ...............
तो मैं सोच में पड़ जाता हूँ।
हर प्रेम एक ख़याल है,
हर ख़याल की कोई साकार प्रेरणा है।
मेरे लिए वो प्रेरणा तुम हो ।
समझी मेरी सोनपरी !
याद है उस दिन .....
जब तुम बिज़नेस की किसी बात पर अड़ गईं थीं।
और अड़ी भी ऐसी कि टस से मस न हुईं ।
तब फ्लाइट पकड़ कर मुझे आनन-फानन तुम्हारे पास आना पड़ा था।
और फिर क्या बोली थीं तुम ?
अपनी कलाइयों को मेरे कांधे पे रख कर ....
ये ज़िद तो बस एक बहाना थी देव !
दरअसल तुमसे मिलने का मन हो रहा था।
उफ़ ये तुम,
और ये तुम्हारी बातें।
लाख कोशिश करूँ तो भी आपे में न रह पाऊँ।
वैसे एक बात कहूँ ....
हर ‘मैं’ के लिए, एक ‘तुम’ चाहिए।
हर ‘मैं’ अधूरा है तुम्हारे बगैर
!!!
मुझे अब भी याद है
उस शाम मैं बहुत थक गया था
पता ही नहीं चला कब सोफ़े पर बैठे-बैठे आँख लग गयी।
अचानक चेहरे पर गीले बालों की छुअन ने सरसराहट कर दी ....
देखा तो तुम थीं,
अभी-अभी आयीं थी नहा कर।
“तुम शाम को नहा रही हो, वो भी सर्दी के मौसम में ....
बीमार हो गईं तो?”
मैं सहसा बोल उठा था।
“अरे बुद्धू नहीं नहाऊँगी तो बेचैन हो जाऊँगी।”
कहते – कहते तुमने मेरी नाक को लगभग मोड़ दिया था।
और मैं ...
मैं हतप्रभ सा तुम्हारे उस रूप के आगे नत हो गया था ।
सच सुनोगी ........
ये तुम ही हो,
जिसके दम पर मैं अपने ख़यालों की दुनिया में रमा रहता हूँ।
ये तुम ही हो,
जिससे प्रेरणा पाकर मैं ख़त लिख पाता हूँ ।
मेरी कल्पना का यथार्थ आधार हो तुम !
फिर कभी न कहना,
कि मुझ पर ख़त ना लिखा करो।
तुमसे ही रोशन है, मेरे ख़तों का ये संसार !!!
सुन रही हो ना ....
तुम्हारा
देव
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