Thursday, 25 December 2014

आत्मा का कोई जेंडर नहीं होता !




प्रिय देव,
लो एक और क्रिसमस आ गया।
पिछली जनवरी से बुनने लगी थी,
एक चादर.....
2014 सितारों वाली !
वो भी पूरी होने आई अब।

एक पत्थर छोटा सा,
किसी ऊबड़-खाबड़ समुद्र तट की बड़ी सी चट्टान के पीछे छिपा हुआ।
हर बार तरसता है भीगने को ...
मगर लहरों की फुहार उस तक आती ही नहीं
चट्टान जो धँसी है
उस छोटे से पत्थर,
और गीली खुशी के बीच।

कुछ ऐसा ही तो गुज़रा...
ये साल भी।
हम जितने एक-दूसरे के होते गए
उतने ही दूर-दूर रहे इस साल !
सोचती हूँ
इस दूरी ने प्यार को बढ़ाया
या
न मिल पाने की कसक ने,
प्यार के बावजूद हमें कहीं से खाली कर दिया।

एक बात कहूँ
बुरा तो नहीं मानोगे ?
आग सिर्फ जलाती नहीं,
गर्मी भी देती है।
पानी सिर्फ डुबोता नहीं,
प्यास भी बुझाता है।
किसी एक पहलू के न हो जाया करो
दिन और रात के बगैर तो
पृथ्वी की गति भी अधूरी है देव।

हाँ,
मुझे एक शिकायत है अपनेआप से
कि मैं तुमसे भी ज़्यादा आज़ाद होकर
तुम्हारी तरह क्यूँ नहीं जी सकती ....
क्या मेरा जेंडर आड़े आ जाता है हर बार ?
कभी-कभी एक कसैला स्वाद उभरने लगता है बरबस ही !!!
तुम ही कहो
प्यार की पूर्णता तो दो से मिलकर है ना
और फिर आत्मा का तो कोई जेंडर नहीं होता !
चोला छोड़कर भी
कोई आत्मा क्या ये दावा कर सकती है
कि मैं मर्द हूँ, और तुम औरत !”
फिर क्यूँ हमारे आस-पास ये सब होता है देव !!!
खैर...
तुम फिर से उदास हो जाओगे
मैं नहीं चाहती
कि सर्द दिनों में
सीले मन से करो तुम
नए साल का स्वागत।

अरे हाँ
तुम्हारी बगिया के अंगूर अपने शबाब पर हैं
काले अंगूरों के उन गुच्छों में से
दो अंगूर निकाल लेना।
एक मेरा....
दूसरा तुम्हारे नाम का।

और वो फ़ाख़्ता ....
तुम्हारे आशियाने में घोंसला बना, गर्मी दिया करती थी जिनको;
वे नन्हें परिंदे भी उड़ चले अपने नाज़ुक पंखों को तौलने !
अरे...
अचरज न करने लगना
यूँ ही चली आई थी मैं, भटकते हुये
और देख लिया कितना कुछ मन की आँखों से।
दो शाश्वत प्रेमी
और एक प्यार
इनसे ही मिलकर तो
बनता है संसार !!
फ़ाख़्ता के बच्चे हों
या फिर
काले अंगूरों का छोटा सा गुच्छा।

सुनो,
तुम्हारे एहसास की इस चादर को
मैंने लपेट लिया है खुद से
2014 सितारों से सजी
एक पूरे साल की चादर !
तुम मुस्कुरा रहे हो ना.....

तुम्हारी

मैं !





Friday, 19 December 2014

क्या कहूँ ...किससे कहूँ... कैसे कहूँ !!


नहीं जानता कि इस शुक्रवार मैंने तुम्हें ख़त क्यों नहीं लिखा।
मगर इतना पता है कि मेरा मन नहीं हुआ ....
बिलकुल नहीं हुआ।
हाँ,
तुम्हें याद किया....
करता रहा !!!
मगर क़लम उठाने और स्याही से शब्द बनाने की हिम्मत ही नहीं हुई।
क्या तारीख भी काली और मनहूस हो सकती है ?
नहीं ना !!!
मगर तब भी ...
घड़ी की सुई आकार टिक जाया करती है
किसी एक तारीख़ पर
और तारीख या तो सुनहरी हो जाती है
या फिर स्याह ……. काली !!!
कैसी विडंबना है सखी
तुम्हारे जन्म-दिन की खुशियों के रंग में सराबोर मैं .....
अचानक ठिठक गया था उस दिन !!
केक का मीठा टुकड़ा कसैला लगने लगा।
मेरी WhatsApp dp से तुम्हारी तस्वीर भी मैंने हटा दी।
और स्तब्ध सा,
सहमा हुआ,
टी. वी. चैनल्स बदल-बदल कर धड़कते दिल से बच्चों के लिए दुआ करने लगा।
बच्चे......
उस पार के !!!

“अपनी औलाद के बेजान जिस्म को कांधे पर ढोने से बड़ा कोई बोझ नहीं।”
कभी मेरे पिता ने मुझसे ये बात कही थी।
और आज .....
आज मैं काँप उठा हूँ !
उन मजबूत बिलखते कंधों को देखकर।
जो आखिरी साँस तक उठायेंगे
ये अदृश्य बोझ हरदम अपने कांधे पर।
क्या कहूँ
किससे कहूँ
कैसे कहूँ
काश !!!
कुछ कहने, सुनने या कर देने से वो बच्चे वापिस आ जाते।
तुम कहती हो न अक्सर मुझसे
कि मैं खुद से बातें करता रहता हूँ
सच कहूँ तो आज मैं सुन्न हूँ !
मेरे कानों में सिर्फ चीखें गूँज रही हैं
दबी-घुटी सिसकियाँ ....
जो सुबह-सुबह किलोल करती हुयी स्कूल के प्रांगण में दौड़ रही थीं,
मचल रही थीं !!!
वो अब सफ़ेद कपड़ों में लिपटी निर्जीव पड़ी हैं।
जिन पर कुछ लाल धब्बे और भिनभिनाती मख्खियाँ हैं।
उफ़्फ़

पता है क्या
मैंने बहुत पहले कुछ लिखा था
मगर डर गया था तुम्हें सुनाने से
मैं उस कविता को आज तुमसे साझा करने की हिम्मत जुटा रहा हूँ।

“जहाँ पानी मंहगा और खून सस्ता है,
ऐसी जगहों पर प्यार कहाँ बसता है।

एक सूखा पेड़ ज्यूँ बसंत तकता है,
मेरा तुझसे कुछ ऐसा ही रिश्ता है।

मेरी थाली तो इस रात भी खाली है,
जानता हूँ तुझको भी अन्न कहाँ पचता है।

हक़ के लिए लड़ना बगावत है यहाँ,
पागल है तू जो तेरा प्राण मुझमें बसता है।

चलो मिल के हम-तुम दुनिया नयी बसा लें,
इस खंडहर की बुनियाद भी खस्ता है।"

और हाँ ....
वो बच्चा,
जो मुझे दुनिया का सबसे ताक़तवर इंसान समझता है
वो खिन्न है
बहुत खिन्न !!!
वो आज अपनी कॉपी के सफ़ेद पन्ने पर
लाल रंग छिड़क कर मेरे पास ले आया
और कहने लगा ....
”देखो मैंने ड्राइंग बनाई”
फिर नन्हें-नन्हें हाथों से
अपनी ड्राइंग को उस अखबार के मुख-पृष्ठ पर रख दिया
जिस पर पेशावर बाल-संहार की तस्वीर छपी थी।
मैं क्या करूँ...
कुछ तो कहो

तुम्हारा

देव






Thursday, 11 December 2014

क्या ऐसा हो सकता है....




अक्सर कहती हो ना .... तुम मुझसे !
“देव,
ख़यालों से बाहर भी एक दुनिया है।
कभी उसमें भी घूम आया करो !
क्यूँ हरदम खोये-खोये से रहते हो?
मेरा देव दीवाना हो पर इतना भी नहीं !!!”

सुनो सखी....
मैं तो वही हूँ, जो मैं हूँ।
जाने कब से....!
ख़यालों की दुनिया में उतना नहीं रहता,
जितना मैं अपने साथ रहता हूँ !
अपने अकेलेपन से प्यार है मुझे।
कुछ पल इतने शांत और निर्दोष होते हैं
कि उनमें प्रवेश करते ही हम पूरी तरह खाली हो जाते हैं।
इतने खाली, कि पूर्णता से भर उठते हैं।

तुम ही कहो...
क्यूँ पालूँ फिर मैं व्यर्थ के झंझट !
और इन दिनों की तो बात ही निराली है।
ये नवंबर,दिसंबर,जनवरी की दुपहरें मुझे इतना रीता कर देती हैं
कि मैं एक विलक्षण आल्हाद से भर उठता हूँ।
चंपा के पेड़ तले छन-छन कर आती हुयी गुनगुनी धूप।
साँस भर उमंगें, मुट्ठी भर कसक।
सरकती हुयी धूप के साथ-साथ दरी सरका कर तकिये को बार–बार एडजस्ट करना।
दो लाइनें पढ़ कर किताब सीने पर रख लेना।
और धूप में आँखें मिचमिचाते हुये देर तक सोचना !!!
इससे हसीन भी कुछ हो सकता है ?
बोलो....!!

सन १९९८ की बात है,
ऐसे ही दिन थे।
मैं आँगन में लेटा हुआ गुनाहों का देवता पढ़ रहा था,
और छिप-छिप कर अपने आँसू पोंछे जा रहा था।
मगर फिर ऐसा तल्लीन हुआ
कि आँसू रलकते रहे और मैं पढ़ता रहा।
इसी बीच जाने कब एक आगंतुक आकर मेरे सिरहाने खड़े हो गए।

जैसे ही मेरी नज़र उन पर गयी,
मैं हड़बड़ा कर धूप को दोष देते हुये अपनी आँखें मिचमिचाने लगा।  
कमाल है न ....
लोग जी भर रोने भी नहीं देते !
और हम !
हम असहज हो जाया करते हैं....
यूँ ही बे-बात पर।

क्या ऐसा हो सकता है
कि इस बार,
इन शांत लमहों में तुम चली आओ
दबे पाँव .....
इस गुनगुनी धूप-छांव के बीच !
मैं यूँ ही खोया हुआ सा कोई किताब पढ़ता रहूँ
‘Buddy’ भी सोया रहे आलस की चादर ताने, अपनी पूँछ हिलाता हुआ।
तुम चुपचाप आकर इस झूले पर बैठ जाओ
और फिर हौले से मुझे पुकारो....
“देव,
क्या खोये हुये हो खुद में
आओ ज़रा झूला दे दो।”
मैं हतप्रभ होकर कुछ देर तुम्हें देखूँ
और फिर मुस्कुरा कर अपनी पलकें मूँद लूँ
जागती आँखों का कोई ख्वाब समझ कर !
ऐसा होगा ना .....

तुम्हारा

देव


    



Thursday, 4 December 2014

“मेरी प्यास को फ़क़त इक बूँद की तलाश है !”





कितने नामों से पुकारूँ उसको  
आरज़ू, इच्छा, तड़प, हसरत या कि फिर आकांक्षा !!!
बड़ा अजीब सा लगता है
जब वो मुझे देव जी कह कर बुलाती है।
हाँ,
बड़ी अटपटी है वो...
पर अपनी सी !
कोई तस्वीर नहीं उसकी
ना ही कोई रंग-रूप
बस दो आँखें अपलोड कर रखी हैं उसने अपनी फेसबुक प्रोफ़ाइल पर
उस नायिका की आँखें ......जो बहुत कम उम्र में चल बसी थी।

हर बार गायब हो जाती है।
कभी दो दिन, कभी चार दिन, तो कभी हफ्ते भर के लिए.....
और फिर अनायास ही इनबॉक्स में चमक उठती है !
“ सुनिए...
कुछ नया लिखा?
मुझ पर कब लिखेंगे....
वो खत !!!
.... जिसका इंतज़ार मैं पिछले जनम से कर रही हूँ।”

उफ वो
और उसकी बातें !!
उस दिन वो जाने किस मूड में थी।
उस दिन पहली बार उसने मुझे पुकारा था, सिर्फ मेरे नाम से।
बगैर किसी विशेषण के....
“देव सुनो,
मैं छटपटाती हूँ
अपने आस-पास की क़ैद से आज़ाद होने के लिए !
ये क़ैद तब महज दिखावा थी,
सोने के पतले-पतले तार थे मेरे आस-पास;  
पता ही नहीं चला,
कब लोहे की सलाखों में तब्दील हो गए वो नाज़ुक सुनहरी तार।”

“देव....
मेरी रूह में उतर जाओ
लो पास आ गयी तुम्हारे
मेरे सर पे अपना हाथ रख दो आज
मैं प्यार पर लिखना चाहती हूँ
जाने क्यूँ हर बार दर्द उभर आता है
कहाँ हो तुम
बोलो ना देव।”
उस दिन ...
उस दिन मैं अस्तित्व के पार चला आया था;
मानो एक अदृश्य कंबल से छिटक कर बाहर आ गया अचानक !

और आज ....
आज तो कमाल हो गया !!!
जाने कितनी और कैसी परतें खोल दी उसने...
“देव,
कुछ कहना है तुमसे
मैं भी उसी शहर की हूँ
जहाँ तुम जन्मे हो...
देखा करती हूँ तुम्हें छिप-छिप कर
मिलने भेज देती हूँ कभी-कभी
अपनी रूह को;
जिस्म का चोला मेरे साहूकार के पास गिरवी रख कर !!!
सुनो देव....
बेचैन मत होना
मेरी प्यास को फ़क़त इक बूँद की तलाश है।
मगर वो बूँद...
या तो अमृत की हो;
या फिर स्वाती नक्षत्र की !
इसलिए बेचैन सिर्फ़ मैं हूँ ...
तुम्हारी बेचैनी से तो अक्सर, कोई कविता रिस जाती है।
और हाँ....
मैं अभी तुमसे बहुत दूर हूँ
एक ठंडे शहर में
कॉफी का प्याला हाथों में पकड़े हुये
भाप को उड़ते हुये देख रही हूँ।
मुझे कभी तलाशना मत
बस महसूस कर लेना !!!”

फिर....
मैं चला आया छत पर
कागज़-पेन को हाथों में थामे
कुछ सूझ ही नहीं रहा।
दूर तक एक जैसे रंग में रंगे आसमान को देख रहा हूँ।
धूप निखरी हुयी है,
तब भी जाने क्यूँ ...
आज का आकाश मटमैला नज़र आ रहा है।

तुम्हारा

देव







Thursday, 27 November 2014

कमाल की आइरनि है





प्रिय देव,

कई बातें हैं,
जिन पर मैं सिर्फ मुस्कुरा देती हूँ;
कुछ कहती नहीं।
लेकिन,
कभी किसी एक बात पर मैं अटक कर रह जाती हूँ।
या वो बात मुझे उलझा लेती है अपने आप में .....
मछली का काँटा बन कर !
छटपटाने लगती हूँ
तब तक,
जब तक कि वो बात मेरे मन की गुफाओं से अपना रास्ता बना कर फट ना पड़े ...
लावे की तरह !!!

याद है,
एक बार तुमने अपने बचपन की कुछ यादें साझा की थीं।
कमाल की आइरनि है देव
सितारा होटल में लाईम जूस कोर्डियल पिलाते हुये तुम मुझे गाँव की ओर ले चले थे।
और मैं अनायास ही चुसकियाँ लेने लगी थी....
उस खट-मिट्ठे नीबू पानी की !
कितना कुछ जीवंत हो उठा था....
वो काँच की बरनियाँ, उनमें रखी चॉकलेट्स !
ओहह सॉरी ...
क्या बोले थे तुम ?
“टॉफी, गोली और बिस्कुट।”
हा हा हा !!!

जानते हो,
मुझे बंधना अच्छा नहीं लगता।
मैं उड़ना चाहती हूँ !
कभी-कभी लगता है,
कि चलते-चलते भी उड़ रही हूँ।
तुमसे मिलकर आने के बाद मैं तुम्हारे बारे में नहीं सोचती।
बस तुम्हारी कोई बात मुझे उलझा लेती है
..... मछली का काँटा बनकर ।
और मैं दिन भर उसी बात को अपने ज़ेहन में लिए घूमती रहती हूँ ।
यहाँ से वहाँ....

कभी-कभी ये भरम होने लगता है
कि मैं तुम्हारी बात सोच रही हूँ
या तुम्हें सोच रही हूँ।
सच कहूँ,
मुझे तुम्हारी बातें अच्छी लगती हैं
पर मैं तुम्हें नहीं सोचना चाहती।
ज़रूरी तो नहीं,
कि जिसे चाहो उसी के बारे में सोचते रहो.....
बार – बार लगातार !!!

कल सिग्नल पर लाइट जैसे ही ग्रीन हुई
मुझे एक लड़का दिखा,
जो तुम्हारी यादों को वर्तमान की थैली में सहेज कर निकल रहा था।
मैंने आनन-फानन गाड़ी साइड में रोकी
और उसे आवाज़ देकर वो यादें खरीद लीं।
कौड़ी के मोल....
कुछ लोग मुझे देखकर मुस्कुरा रहे थे।
नहीं जानती कि मुझ पर.....
या मुझमें छिपे तुम पर !
लेकिन ये सच है
कि उस लड़के ने मेरे मन की गुफा में एक रास्ता बना दिया।
मगर उसमें से जो बह कर निकला .....
वो लावा नहीं प्रेम था।
मुझे अन्यथा मत लेना..

तुम्हारी

मैं !





Thursday, 20 November 2014

तुम .....

क्या कह रही थीं तुम .....
पगली कहीं की !
कि,
“मुझ पर ख़त ना लिखा करो देव
किसी को पसंद नहीं आएंगे।”
अच्छा एक बात कहो
ये ख़त, क्या मैं ये सोच कर लिखता हूँ
कि किसी को पसंद आएंगे या नहीं !
या कि फिर
प्यार तुम्हें करूँ और ख़त किसी और पर लिखूँ ....
बोलो !!!!

तुम,
जो दिन-रात चलती रहती हो घड़ी की टिक-टिक सूइयों जैसी।
तुम,
जो आटा महीन पीसने की जुगत में खुद भी पिसती रहती हो।
तुम,
जो चावल के दाने का कण देखने के लिए खुद उबल पड़ती हो ।
तुम,
जब ये कहती हो कि तुम पर ख़त ना लिखूँ ...............
तो मैं सोच में पड़ जाता हूँ।
हर प्रेम एक ख़याल है,
हर ख़याल की कोई साकार प्रेरणा है।
मेरे लिए वो प्रेरणा तुम हो ।
समझी मेरी सोनपरी !

याद है उस दिन .....
जब तुम बिज़नेस की किसी बात पर अड़ गईं थीं।
और अड़ी भी ऐसी कि टस से मस न हुईं ।
तब फ्लाइट पकड़ कर मुझे आनन-फानन तुम्हारे पास आना पड़ा था।
और फिर क्या बोली थीं तुम ?
अपनी कलाइयों को मेरे कांधे पे रख कर ....
ये ज़िद तो बस एक बहाना थी देव !
दरअसल तुमसे मिलने का मन हो रहा था।
उफ़ ये तुम,
और ये तुम्हारी बातें।
लाख कोशिश करूँ तो भी आपे में न रह पाऊँ।
वैसे एक बात कहूँ ....
हर मैं के लिए, एक तुम चाहिए।
हर मैं अधूरा है तुम्हारे बगैर !!!

मुझे अब भी याद है
उस शाम मैं बहुत थक गया था
पता ही नहीं चला कब सोफ़े पर बैठे-बैठे आँख लग गयी।
अचानक चेहरे पर गीले बालों की छुअन ने सरसराहट कर दी ....
देखा तो तुम थीं,
अभी-अभी आयीं थी नहा कर।
“तुम शाम को नहा रही हो, वो भी सर्दी के मौसम में ....
बीमार हो गईं तो?
मैं सहसा बोल उठा था।
“अरे बुद्धू नहीं नहाऊँगी तो बेचैन हो जाऊँगी।”
कहते – कहते तुमने मेरी नाक को लगभग मोड़ दिया था।
और मैं ...
मैं हतप्रभ सा तुम्हारे उस रूप के आगे नत हो गया था ।

सच सुनोगी ........
ये तुम ही हो,
जिसके दम पर मैं अपने ख़यालों की दुनिया में रमा रहता हूँ।
ये तुम ही हो,
जिससे प्रेरणा पाकर मैं ख़त लिख पाता हूँ ।
मेरी कल्पना का यथार्थ आधार हो तुम !
फिर कभी न कहना,
कि मुझ पर ख़त ना लिखा करो।
तुमसे ही रोशन है, मेरे ख़तों का ये संसार !!!
सुन रही हो ना ....

तुम्हारा

देव