कितने नामों से पुकारूँ उसको
आरज़ू, इच्छा, तड़प, हसरत या कि फिर आकांक्षा !!!
बड़ा अजीब सा लगता है
जब वो मुझे ‘देव जी’ कह कर बुलाती है।
हाँ,
बड़ी अटपटी है वो...
पर अपनी सी !
कोई तस्वीर नहीं उसकी
ना ही कोई रंग-रूप
बस दो आँखें अपलोड कर रखी हैं उसने अपनी फेसबुक प्रोफ़ाइल पर
उस नायिका की आँखें ......जो बहुत कम उम्र में चल बसी थी।
हर बार गायब हो जाती है।
कभी दो दिन, कभी चार दिन, तो कभी हफ्ते भर
के लिए.....
और फिर अनायास ही इनबॉक्स में चमक उठती है !
“ सुनिए...
कुछ नया लिखा?
मुझ पर कब लिखेंगे....
वो खत !!!
.... जिसका इंतज़ार मैं पिछले जनम से कर रही हूँ।”
उफ वो
और उसकी बातें !!
उस दिन वो जाने किस मूड में थी।
उस दिन पहली बार उसने मुझे पुकारा था, सिर्फ मेरे नाम से।
बगैर किसी विशेषण के....
“देव सुनो,
मैं छटपटाती हूँ
अपने आस-पास की क़ैद से आज़ाद होने के लिए !
ये क़ैद तब महज दिखावा थी,
सोने के पतले-पतले तार थे मेरे आस-पास;
पता ही नहीं चला,
कब लोहे की सलाखों में तब्दील हो गए वो नाज़ुक सुनहरी तार।”
“देव....
मेरी रूह में उतर जाओ
लो पास आ गयी तुम्हारे
मेरे सर पे अपना हाथ रख दो आज
मैं प्यार पर लिखना चाहती हूँ
जाने क्यूँ हर बार दर्द उभर आता है
कहाँ हो तुम
बोलो ना देव।”
उस दिन ...
उस दिन मैं अस्तित्व के पार चला आया था;
मानो एक अदृश्य कंबल से छिटक कर बाहर आ गया अचानक !
और आज ....
आज तो कमाल हो गया !!!
जाने कितनी और कैसी परतें खोल दी उसने...
“देव,
कुछ कहना है तुमसे
मैं भी उसी शहर की हूँ
जहाँ तुम जन्मे हो...
देखा करती हूँ तुम्हें छिप-छिप कर
मिलने भेज देती हूँ कभी-कभी
अपनी रूह को;
जिस्म का चोला मेरे साहूकार के पास गिरवी रख कर !!!
सुनो देव....
बेचैन मत होना
मेरी प्यास को फ़क़त इक बूँद की तलाश है।
मगर वो बूँद...
या तो अमृत की हो;
या फिर स्वाती नक्षत्र की !
इसलिए बेचैन सिर्फ़ मैं हूँ ...
तुम्हारी बेचैनी से तो अक्सर, कोई कविता रिस जाती है।
और हाँ....
मैं अभी तुमसे बहुत दूर हूँ
एक ठंडे शहर में
कॉफी का प्याला हाथों में पकड़े हुये
भाप को उड़ते हुये देख रही हूँ।
मुझे कभी तलाशना मत
बस महसूस कर लेना !!!”
फिर....
मैं चला आया छत पर
कागज़-पेन को हाथों में थामे
कुछ सूझ ही नहीं रहा।
दूर तक एक जैसे रंग में रंगे आसमान को देख रहा हूँ।
धूप निखरी हुयी है,
तब भी जाने क्यूँ ...
आज का आकाश मटमैला नज़र आ रहा है।
तुम्हारा
देव
No comments:
Post a Comment