नहीं जानता कि इस शुक्रवार मैंने तुम्हें ख़त क्यों नहीं लिखा।
मगर इतना पता है कि मेरा मन नहीं हुआ ....
बिलकुल नहीं हुआ।
हाँ,
तुम्हें याद किया....
करता रहा !!!
मगर क़लम उठाने और स्याही से शब्द बनाने की हिम्मत ही नहीं हुई।
क्या तारीख भी काली और मनहूस हो सकती है ?
नहीं ना !!!
मगर तब भी ...
घड़ी की सुई आकार टिक जाया करती है
किसी एक तारीख़ पर
और तारीख या तो सुनहरी हो जाती है
या फिर स्याह ……. काली !!!
कैसी विडंबना है सखी
तुम्हारे जन्म-दिन की खुशियों के रंग में सराबोर मैं .....
अचानक ठिठक गया था उस दिन !!
केक का मीठा टुकड़ा कसैला लगने लगा।
मेरी WhatsApp dp से तुम्हारी तस्वीर भी
मैंने हटा दी।
और स्तब्ध सा,
सहमा हुआ,
टी. वी. चैनल्स बदल-बदल कर धड़कते दिल से बच्चों के लिए दुआ करने लगा।
बच्चे......
उस पार के !!!
“अपनी औलाद के बेजान जिस्म को कांधे पर ढोने से बड़ा कोई बोझ नहीं।”
कभी मेरे पिता ने मुझसे ये बात कही थी।
और आज .....
आज मैं काँप उठा हूँ !
उन मजबूत बिलखते कंधों को देखकर।
जो आखिरी साँस तक उठायेंगे
ये अदृश्य बोझ हरदम अपने कांधे पर।
क्या कहूँ
किससे कहूँ
कैसे कहूँ
काश !!!
कुछ कहने, सुनने या कर देने से वो बच्चे वापिस आ जाते।
तुम कहती हो न अक्सर मुझसे
कि मैं खुद से बातें करता रहता हूँ
सच कहूँ तो आज मैं सुन्न हूँ !
मेरे कानों में सिर्फ चीखें गूँज रही हैं
दबी-घुटी सिसकियाँ ....
जो सुबह-सुबह किलोल करती हुयी स्कूल के प्रांगण में दौड़ रही थीं,
मचल रही थीं !!!
वो अब सफ़ेद कपड़ों में लिपटी निर्जीव पड़ी हैं।
जिन पर कुछ लाल धब्बे और भिनभिनाती मख्खियाँ हैं।
उफ़्फ़
पता है क्या
मैंने बहुत पहले कुछ लिखा था
मगर डर गया था तुम्हें सुनाने से
मैं उस कविता को आज तुमसे साझा करने की हिम्मत जुटा रहा हूँ।
“जहाँ पानी मंहगा और खून सस्ता है,
ऐसी जगहों पर प्यार कहाँ बसता है।
एक सूखा पेड़ ज्यूँ बसंत तकता है,
मेरा तुझसे कुछ ऐसा ही रिश्ता है।
मेरी थाली तो इस रात भी खाली है,
जानता हूँ तुझको भी अन्न कहाँ पचता है।
हक़ के लिए लड़ना बगावत है यहाँ,
पागल है तू जो तेरा प्राण मुझमें बसता है।
चलो मिल के हम-तुम दुनिया नयी बसा लें,
इस खंडहर की बुनियाद भी खस्ता है।"
और हाँ ....
वो बच्चा,
जो मुझे दुनिया का सबसे ताक़तवर इंसान समझता है
वो खिन्न है
बहुत खिन्न !!!
वो आज अपनी कॉपी के सफ़ेद पन्ने पर
लाल रंग छिड़क कर मेरे पास ले आया
और कहने लगा ....
”देखो मैंने ड्राइंग बनाई”
फिर नन्हें-नन्हें हाथों से
अपनी ड्राइंग को उस अखबार के मुख-पृष्ठ पर रख दिया
जिस पर पेशावर बाल-संहार की तस्वीर छपी थी।
मैं क्या करूँ...
कुछ तो कहो
तुम्हारा
देव
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