अक्सर कहती हो ना .... तुम मुझसे !
“देव,
ख़यालों से बाहर भी एक दुनिया है।
कभी उसमें भी घूम आया करो !
क्यूँ हरदम खोये-खोये से रहते हो?
मेरा देव दीवाना हो पर इतना भी नहीं !!!”
सुनो सखी....
मैं तो वही हूँ, जो मैं हूँ।
जाने कब से....!
ख़यालों की दुनिया में उतना नहीं रहता,
जितना मैं अपने साथ रहता हूँ !
अपने अकेलेपन से प्यार है मुझे।
कुछ पल इतने शांत और निर्दोष होते हैं
कि उनमें प्रवेश करते ही हम पूरी तरह खाली हो जाते हैं।
इतने खाली, कि पूर्णता से भर उठते हैं।
तुम ही कहो...
क्यूँ पालूँ फिर मैं व्यर्थ के झंझट !
और इन दिनों की तो बात ही निराली है।
ये नवंबर,दिसंबर,जनवरी की दुपहरें मुझे
इतना रीता कर देती हैं
कि मैं एक विलक्षण आल्हाद से भर उठता हूँ।
चंपा के पेड़ तले छन-छन कर आती हुयी गुनगुनी धूप।
साँस भर उमंगें, मुट्ठी भर कसक।
सरकती हुयी धूप के साथ-साथ दरी सरका कर तकिये को बार–बार एडजस्ट
करना।
दो लाइनें पढ़ कर किताब सीने पर रख लेना।
और धूप में आँखें मिचमिचाते हुये देर तक सोचना !!!
इससे हसीन भी कुछ हो सकता है ?
बोलो....!!
सन १९९८ की बात है,
ऐसे ही दिन थे।
मैं आँगन में लेटा हुआ ‘गुनाहों का देवता’ पढ़ रहा था,
और छिप-छिप कर अपने आँसू पोंछे जा रहा था।
मगर फिर ऐसा तल्लीन हुआ
कि आँसू रलकते रहे और मैं पढ़ता रहा।
इसी बीच जाने कब एक आगंतुक आकर मेरे सिरहाने खड़े हो गए।
जैसे ही मेरी नज़र उन पर गयी,
मैं हड़बड़ा कर धूप को दोष देते हुये अपनी आँखें मिचमिचाने लगा।
कमाल है न ....
लोग जी भर रोने भी नहीं देते !
और हम !
हम असहज हो जाया करते हैं....
यूँ ही बे-बात पर।
क्या ऐसा हो सकता है
कि इस बार,
इन शांत लमहों में तुम चली आओ
दबे पाँव .....
इस गुनगुनी धूप-छांव के बीच !
मैं यूँ ही खोया हुआ सा कोई किताब पढ़ता रहूँ
‘Buddy’ भी सोया रहे आलस की चादर ताने, अपनी पूँछ हिलाता
हुआ।
तुम चुपचाप आकर इस झूले पर बैठ जाओ
और फिर हौले से मुझे पुकारो....
“देव,
क्या खोये हुये हो खुद में
आओ ज़रा झूला दे दो।”
मैं हतप्रभ होकर कुछ देर तुम्हें देखूँ
और फिर मुस्कुरा कर अपनी पलकें मूँद लूँ
जागती आँखों का कोई ख्वाब समझ कर !
ऐसा होगा ना .....
तुम्हारा
देव
No comments:
Post a Comment