Thursday, 29 September 2016

संजाबई को सासरो सागर में







ये क्वांर का महीना
सम्मोहित कर लिया करता है मुझको
अजीब सी अनुभूतियाँ
आकर घेर लेती हैं।
बारिश की विदाई
पेड़-पौधों पर छाई हुयी
तरह-तरह के शेड्स वाली हरियाली।  
मीठी सुबह
और तीखी दुपहरी।
ये सब ...
इस क्वांर के महीने में ही तो होता है।
घरों से उड़ता पवित्र धुआँ
मोहल्लों से आती धूप की महक
पूर्वजों के खाने की थाल हाथ में लिए
गाय को आवाज़ लगाते
या छत पर जाकर
कौवों का इंतज़ार करते लोग।  

ऐसे में...
कुछ यादें आकर बैठ जाती हैं मेरे पास !
हमारे बचपन की यादें
सेकेंड के सौवें हिस्से में
बिजली की मानिंद कौंधती यादें !

कितने छोटे थे हम
दुनियादारी और दुनिया से दूर
हर त्योहार की आहट पर
उमंग से भर उठते,
और हर त्योहार के जाने के बाद
मन भारी और बोझिल हो जाता।

जब पहली बार
मैंने तुम्हें संजा बनाते देखा था
तब कौतूहल से भर उठा था
“ये क्या बना रही हो ?
और तुम ठहाका लगा कर हँस पड़ी थी
“बना नहीं रही बुद्धू माँड रही हूँ।”
फिर पूरे एक पखवाड़े तक
हर शाम तुम अपनी सहेलियों के साथ
संजा के गीत गातीं
और मैं पीछे खड़ा होकर
कभी उन सुंदर आकृतियों को देखता
तो कभी तुम्हारे गीतों को सुनता।  
“काजल टीकी लो रे भई, काजल टीकी लो
काजल टीकी लेई ने म्हारी संजाबई के दो
संजाबई को सासरो सागर में
पदम पधार्या घड़ी भर में”
इन लोकगीतों को सुन
मैं किसी दूसरे जहान में चला जाता।
लगता....
जैसे इस दुनिया में
बस एक ही लड़की है
दैवी शक्ति से ओत-प्रोत
जिससे मेरा अस्तित्व स्पंदित होता है।  
तब तुम मेरे लिये
मेरी अल्हड़ सखी नहीं
एक विराट बन जाया करती थीं।

फिर अचानक...
तुम चली गईं
गर्मी की छुट्टियों में बिछड़े
तो स्कूल खुलने पर भी ना मिल पाये !
क्वांर के कई मौसम आए
संजा माँ की पूजा होती रही
लेकिन तुम्हारे बगैर हर पूजा अधूरी लगती थी।
लड़कियाँ मिल कर गातीं
“ छोटी सी गाड़ी लुड़कती जाय
जी में बैठी संजा माय
घाघरो घमकाती जाय
चूड़ियाँ खनकाती जाय।”
और मुझे लगता
कि तुम एक छोटी सी गाड़ी में बैठकर
मुझसे दूर जा रही हो।
तुम्हारी मुसकुराती आँखों की याद
मुझे भीतर तक उदासी से भर देती।  
और एक दिन
क्वांर के ही महीने में
तुमने दबे पाँव आकर
मेरी आँखों को अपनी नर्म-नर्म हथेलियों से ढाँप लिया।
उफ़्फ़....
बबली मेरी
क्या तुम्हें अपनी महक की मादकता का एहसास है ?

किसी कॉरपरेट डेलिगेशन के सामने
उस दिन तुम अचानक
मुझसे मालवी में बातें करने लगीं
तो मैं हक्का-बक्का रह गया,
मगर तुम्हारा रोम-रोम मुस्कुरा रहा था।
फिर हौले से तुमने मेरी हथेली को दबाकर कहा था
“जानते हो बुद्धू
एंथ्रोपोलॉजी में इस हरकत को
कोड़-स्विचिंग कहते हैं,
अंग्रेज़ी से सीधे मालवी !
उसके ठीक दो घंटे बाद
कॉफी टेबल पर बैठे हुये मैंने पूछ ही लिया था
-“उन लोगों ने बुरा तो नहीं माना होगा ?”
-“क्यों भला ?
बचपन में मेरे साथ संजा के गीत क्या वो गाते थे
जो बुरा मानेंगे ?”
इतना कहकर
तुम तो बेलौस अंदाज़ में कॉफी पीने लगीं
और मैं पलकें मूँदे
कभी तुम्हारी आवाज़ की गूंज
तो कभी बचपन की यादों में सराबोर हो गया।

जानती हो
तब मेरा मन हुआ था
कि एक दिन चुपके से जाकर
तुम्हारे ऑफिस के बाहर वाली नेम-प्लेट पर
तुम्हारे घर का नाम लिख दूँ
..... बबली !

सुनो न ....
नवरात्र लगने से पहले
बस एक शाम के लिये चली आओ
साथ-साथ चहकेंगे, खूब हँसेंगे
फिर वहाँ जाएँगे
जहाँ संजा बनी हो
और बच्चे मिलकर,
संजा के गीत गा रहे हों।
उन्हीं बच्चों में से
किसी लड़की के पास तुम खड़ी हो जाना
किसी लड़के के साथ मैं खड़ा हो जाऊँगा
और...
मुझे देख तुम हौले से मुस्कुरा देना
फिर जब
मैं अपनी आँखें बंद कर
बचपन में चला जाऊँ
तो बिना आहट किये
वहाँ से सीधे एयरपोर्ट चली जाना।  
ताकि,
देर रात की फ्लाइट
सुबह होने पर
तुमको तुम्हारे ऑफिस पहुँचा दे !.
...
तुम्हारा
देव 



3 comments:

  1. मनमोहक और मासूम अभिव्यक्ति

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  2. वाह! सर,
    बहुत खूबसूरत अभिव्यक्ति है।

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  3. वाह!सर,
    मनमोहक और सुंदर अभिव्यक्ति।

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