Thursday, 1 September 2016

सुमन और सुगंध कभी विलग नहीं होते !







देव मेरे,
कल से तुम्हारी बड़ी याद आ रही है।
यूं महसूस हो रहा है
जैसे कुछ बदल से गए हो तुम !
या फिर,
तुम्हारे भीतर कुछ बदल रहा है।
बदलाव बुरा नहीं,
यदि उससे खुशी मिले।  
यदि उससे कोई दुखी न हो।

वैसे एक बात कहूँ...
बेचैनी उतनी खराब भी नहीं होती
जितने कि उसको उलाहने मिला करते हैं।
बेचैनी अच्छी है
यदि उसका अंत सुक़ून में हो।
मगर हाँ,
तुम्हारी उस कविता के जैसी बेचैनी मुझे हरगिज़ पसंद नहीं।
अब भी याद है वो कविता ...
“दीमक ज्यों सूखी लकड़ी को चट कर जाती है,
 मेरे अंदर की बेचैनी मुझको खाये जाती है ॥”

अरे,
मैं वो बात तो भूल ही गयी
जिसे कहने के लिये
ये ख़त लिखने बैठी।
ज़रा देखो तो इनको
एक कतार में बैठे हुये
हरसिंगार के ये तीन फूल,
पानी की मार से कुम्हलाया हुआ
इनका चौथा साथी,
और एक भीगी हुई
हरी खुरदरी पत्ती !!
यही तो है जीवन.....
आधी रात के बाद फूलना
सूरज उगने से पहले झर जाना
और जो कभी मौसम बिगड़ जाये
तो हँसते-हँसते हमेशा के लिये चले जाना।

मैं ये नहीं कहूँगी
कि ज़्यादा मत सोचा करो
पर सोच को कभी
ख़ुद पर हावी मत होने दो।
क्योंकि तुम हो, तो सब हैं
और जो तुम नहीं
तो अपनी रफ़्तार से चलेगी ये दुनिया।
और उस दुनिया के लिये
हर दिन धुंधलाती रहेंगी
... तुम्हारी यादें।

जानती हूँ मैं
उस दिन तुम
सिर्फ किताबें देने नहीं आए थे,
मुझसे मिलने का भी मन था तुम्हारा !
फिर झिझक क्यों गये?
बोलो .....
पैरों में तकलीफ़ है तुम्हारे
सीढ़ी चढ़ने में परेशानी होती है
ये सब बातें पता हैं मुझे।
इसीलिए तो चली आई थी नीचे
पहाड़ी नदी सी बहती हुई .....
सिर्फ ये बताने
कि सुमन और सुगंध कभी विलग नहीं होते !

लेकिन तुम,
निगाहें क्यों नहीं मिला रहे थे मुझसे ?
भीड़ में असहज हो गये थे
या शरीर की पीड़ा से व्यथित थे !
तन की तकलीफ़
मन के आल्हाद से बड़ी नहीं होती देव !
इसीलिए मैंने तब  
अपना सूजा हुआ पैर दिखाया था तुमको।
कोई झिझक, कोई शारीरिक पीड़ा
कभी इतनी बड़ी न हो जाये
कि मुलाक़ात के उन बेशकीमती पलों को
हम यूं ही गँवा दें !
और फिर,
पछताते रहें बस !
समझा तो करो ....
बच्चे क्यों नहीं बन जाते;
प्यारू मेरे !!!

और हाँ,
बड़ी हरसिंगार और पारिजात की बातें किया करते हो ना !
लो,
मुझको भी प्यार हो गया
तुम्हारे इस हरसिंगार से !
अब तो खुश हो ?

तुम्हारी

मैं !

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