“एक बुलबुला हूँ मैं
जिसकी बस इतनी सी ख़्वाहिश
कि मिटने से पहले देख ले वो
......सतरंगी इंद्रधनुष !!”
पीहू मेरे,
यही बोले थे ना
तुम उस पीली खुशनुमा शाम को।
फिर हम दोनों
देर तक सिसकते हुये
जाने कब सो गये थे।
और जब रात गहरा गई
तब नींद से जगाकर
मैंने अपने हाथों से
खिलाये थे तुमको
देगची में ही ठंडे हो चुके चावल,
आलू की गीली सब्ज़ी के साथ।
कुछ यादों को
बिसराने या थामने की ज़रूरत नहीं होती;
वो बस हमारे साथ चला करती हैं
जाने-अनजाने हर जगह।
लाख अपने कान बंद कर लूँ
लाख निगाहें फेर लूँ
प्रेम की आहट .....
मुझे सुनाई दे ही जाती है।
किसी न किसी रूप में प्यार दिख ही जाता है।
सफ़ेद पंखुड़ी पर लटकती
एक पनियल बूँद...
जो आतुर है
गिरकर मिट्टी में मिल जाने को !
और ऐसी जाने कितनी ही बूंदें,
इसी राह पर चलकर
मिट जाने को बेताब हैं।
उनके बारे में सोचा है कभी ?
ऐसा इसलिए है
कि इनको भी प्यार है
ये भी मिल जाना चाहती हैं
अपने महबूब में
..... ख़ुद को खोकर !
बादल, पानी, बूँद, मिट्टी, भाप ....
और फिर बादल !
आह,
कैसा चरम है ये प्यार का
कैसा जुनून है ये
ख़ुद को खोकर मिट्टी-मिट्टी हो जाने का !
कई बार सोचती हूँ
कि तुम प्यार करके भी
प्यार को समझ क्यों नहीं पाये ?
.......अब तक !!!
या कि तुमको ख़ुद पर ही विश्वास नहीं।
बताओ....
जो तुममें से होकर
गुज़र जाना चाहता है।
उसे तुम अपने भीतर क्यों रोक लेते हो ?
जो रुकते हैं
वो अक्सर बसेरा तलाशने लगते हैं
चाहे पंछी हो, या प्यार !
इसलिए बहने दो।
उनको भी,
जो तुमको थाम कर रुक जाना चाहते हैं कुछ देर !
हर आसरा
अनजाने ही बन जाता है
कुछ अनचीन्हे घरों की नींव।
और नींव हिलती है
तो घर बिखर जाते हैं।
मेरे मिट्टी के माधव
तुम्हारी बूँद हूँ मैं !
मिल जाने दो बूँद को मिट्टी में
और इंतज़ार करो फिर से
एक तपते सूरज का !
ताकि जब तुम
सूखकर, चटककर टूटो
और मैं
तुममें से भाप बनकर बाहर निकलूँ
तब दोनों का अंतस
अपार सुख से भर जाये।
फिर एक नया रूप बने
फिर से पुराना मिलन सार्थक हो जाये।
कुछ समझ में आया !
पग्गल प्यारे ........
तुम्हारी
मैं !
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